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एक दिन के राजा को मुखर होना होगा

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आम चुनाव की सरगर्मिया उग्रत्तर होती जा रही है। पहले चरण का चुनाव प्रचार थम गया है। इस चुनावी मौसम में सारे ही राजनीतिक दल और राजनेता सारी लोकतांत्रिक मर्यादाएं लांघते नजर आ रहे हैं। ये चुनाव फूहड़ता, भाषाई अशिष्टता, निजी अपमान का अखाड़ा बन गये हैं। हर कोई चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए सारे मतदाताओं को आपस में लड़ाने एवं डराने का दुश्चक्र रच रहे हैं। यह देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को धुंधलाने का शर्मसार घटनाक्रम है। इस शर्म को हम कैसे धोएं? क्या लोकतंत्र का यह महापर्व अपने राष्ट्रीय चरित्र के लिये कोई ठोस उपक्रम के लिये जाना जायेगा?

यह मानकर चला जाता है कि राजनीति और युद्ध में कुछ भी नाजायज नहीं होता। फिर भी साध्य और साधन की पवित्रता की दुहाई देने वाले गांधी के देश में हर नागरिक को सर्तक एवं जागरूक होना होगा कि क्या उसके वोट से चुना जाने वाला प्रतिनिधि उसकी सोच पर खरा उतरेगा? मतदाता को यह भी देखना होगा कि जिस तरह हमारे कथित नेता पाला बदलते हैं, जिस तरह वोट हासिल करने के लिये गलत साधनों का उपयोग करते हैं, क्या यह जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप है?

हर चुनाव की तरह इस आम चुनाव को भी भारत का भविष्य गढ़ने वाला बताया जा रहा है। राजनीतिक पार्टियों का जोर न तो राष्ट्रीय सुरक्षा पर है, न रोजगार पैदा करने वाले आर्थिक विकास पर एवं न सुदृढ़ भारत निर्मित करने पर है। सभी का जोर येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करने का है। हकीकत यह है कि ये मुद्द और स्थितियां अलग-अलग नहीं, एक ही हैं। अभी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी कोई आपातस्थिति हमारे सामने नहीं है। आतंकवाद और सीमापार से होने वाली घुसपैठ का सामना हम दशकों से करते आ रहे हैं। इसका अधिक सशक्त तरीके से सामना करने के लिये हमें जिस आर्थिक ताकत की जरूरत है, वैसी ही नैतिक प्रतिबद्धताओं की भी अपेक्षा है। आने वाले वर्षों में रोजगार पैदा करने वाले मजबूत आर्थिक विकास यदि हमारे हिस्से नहीं आती तो कई मोर्चों पर हमें परेशानी उठानी पड़ेगी। विभिन्न स्तरों पर उभरते आंतरिक राजनीतिक असंतोष का सामना भी हमें करना पड़ेगा, क्योंकि हमारे बेरोजगार नौजवान अपनी हताशा का इजहार करने लगेंगे। जाहिर है, सार्थक राष्ट्रीय सुरक्षा सशक्त रोजगारपरक आर्थिक संवृद्धि के बिना संभव नहीं है। भूलना नहीं चाहिए कि टिकाऊ विकास के लिए सामाजिक शांति, नैतिक एवं चारित्रिक विकास भी जरूरी है।

क्या इन चुनावों में उम्मीदवार अंतरात्मा की आवाज या राष्ट्रसेवा के नाम पर वोट मांग रहे है या किसी लालच से प्रेरित होकर? लेकिन इस सवाल का अर्थ तो तब है जब हम यह मानते हों कि राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान होना चाहिए। हमने यह मान लिया है कि राजनीति शैतानों की शरणस्थली है। उससे नैतिकता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? राजनीति को शैतानों की शरणस्थली मानना एक शर्मनाक विवशता है। लेकिन कतई जरूरी नहीं कि इस विवशता को हम हमेशा ढोते ही रहें। अपराधियों को टिकट देना, उन्हें जीता कर संसद में लाना, उनकी हरकतों को नजर अंदाज करना आदि राजनीतिक दलों की विवशता हो सकती है, जनतंत्र के मूल्यों में विश्वास करने वाले किसी विवेकशील ईमानदार मतदाता की नहीं। यदि हम स्वयं को ईमानदार मानते हैं, विवेकशील मानते हैं, तो एक जिम्मेदार नागरिक के नाते हमारा कर्तव्य बनता है कि हम ऐसे अपराधी एवं दागी प्रतिनिधियों को नकारे। नेताओं की दलबदली और खरीद-फरोख्त के आरोप सिर्फ राजनीतिक दलों पर ही नहीं लगे हैं, इनका रिश्ता हमारी समूची व्यवस्था और सोच से है।

गलत जब गलत न लगे तो यह मानना चाहिए कि बीमारी गहरी है इसके लिये आवश्यकता है और बड़ी शल्यक्रिया की। अनैतिक राजनीति हमारे वर्तमान का सच है, लेकिन एक शर्मनाक सच है यह। इस शर्म से उबरना जरूरी है। अनैतिकता सिर्फ कानून से दूर नहीं हो सकती। इसके लिए एक सामाजिक जागरूकता की अपेक्षित है। सामाजिक सक्रियता भी जरूरी है। इस जागरूकता और सक्रियता का एक अर्थ यह है कि हम नेतृत्व के अनैतिक आचरण को अस्वीकार कर दें। उसे अपना आचरण सुधारने के लिए बाध्य करें। दूसरा रास्ता उसे ठोकर मार कर हटाने का है। सवाल सिर्फ इतना है कि क्या हम ठोकर मारने के लिए तैयार हैं। हम यदि इसके लिये तैयार हैं तो चुनाव ही इसके उपचार का कारगर समय है।

चुनाव अभियान प्रारम्भ है। प्रत्याशियों के नामांकन हो चुके हैं। प्रथम चरण का मतदान होने वाला है। सब राजनैतिक दल अपने-अपने ‘घोषणा-पत्र’ को ही गीता का सार व नीम की पत्ती बता रहे हैं, जो सब समस्याएं मिटा देगी तथा सब रोगों की दवा है। सत्तर वर्षों तक सत्ता का उपभोग करने के बाद भी ‘हमें स्थायित्व दो, की मांग कर रहे हैं। कुछ दल भाषणों में नैतिकता की बातें करते हैं और व्यवहार में अनैतिकता को छिपा रहे हैं। टुकड़े-टुकड़े बिखरे कुछ दल फेवीकाॅल लगाकर एक हो रहे हैं। ग्रुप फोटो खिंचा रहे हैं। सत्ता तक पहुँचने के लिए कुछ दल परिवर्तन को आकर्षण व आवश्यकता बता रहे हैं। कुछ लोग कानून की अदालत को मानते हैं, जहां से चयनित होकर अपने को निर्दोष साबित करना चाहते हैं। इस बार दलों में जितना अन्दर-बाहर हुआ है, उससे स्पष्ट है कि चुनाव परिणामों के बाद भी एक बड़ा दौर खरीद-फरोख्त का चलेगा। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आंख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि “अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे।”

यह चुनाव केवल दलों के भाग्य का ही निर्णय नहीं करेगा, बल्कि उद्योग, व्यापार, रक्षा, रोजगार आदि राष्ट्रीय नीतियों तथा राष्ट्र की पूरी जीवन शैली, राष्ट्रीय चरित्र व भाईचारे की संस्कृति को प्रभावित करेगा। वैसे तो हर चुनाव में वर्ग जाति का आधार रहता है, पर इस बार वर्ग, जाति, धर्म व क्षेत्रीयता व्यापक रूप से उभर कर आई है। और दलों के आधार पर गठबंधन भी एक प्रदेश में और दूसरे प्रदेश में बदले हुए हैं। एक में सहयोगी एक में विरोधी है। सिद्धांत और स्वार्थ के बीच की भेद-रेखा को मिटा दिया गया है। चुनावों का नतीजा अभी लोगों के दिमागों में है। मतपेटियां क्या राज खोलेंगी, यह समय के गर्भ में है। पर एक संदेश इस चुनाव से मिलेगा कि अधिकार प्राप्त एक ही व्यक्ति अगर ठान ले तो अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार एवं राजनीतिक अपराधों पर नकेल डाली जा सकती है।

लेकिन देश में आज जो राजनीतिक माहौल बन रहा है, जिस तरह रोज नए समीकरण बन या बिगड़ रहे हैं और जिस तरह सत्ता के खेल में आदर्शों पर आधारित सारे नियम ताक पर रखे जा रहे हैं, उसको देखते हुए किसी भी दल के किसी भी राजनेता की कथनी पर विश्वास करना मुश्किल हो गया है। वैसे अपने आप में यह बहुत अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राष्ट्रहित की अपनी परिभाषाओं पर टिके रहने का साहस दिखाया है। इस साहस की प्रशंसा होनी चाहिए। लेकिन चुनाव में जो कुछ हो रहा है, जिस तरह सत्ता को केंद्र बनाकर समीकरण बनाए जा रहे हैं उससे देश के समझदार तबके को चिंतित होना ही चाहिए।

यह सही है कि मूल्य आधारित राजनीति की बात करना आज थोथा आदर्शवाद माना जाता है, लेकिन कहीं न कहीं तो हमें यह स्वीकारना ही होगा कि जिस तरह की अवसरवादी राजनीति हमारे जनतंत्र पर हावी होती जा रही है, उससे देश के वास्तविक और व्यापक हितों पर विपरीत असर ही पड़ सकता है। आज हो रहे राजनीतिक तमाशे और राजनेताओं के बदलते चेहरों में हमें इस अवसर के बारे में भी जागरूक रहना होगा। मतदाता को जागना होगा, मुखर होना होगा। सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाती है, देश के भाग्य को रचने में मतदाता को अपने विवेक, समझदारी एवं दूरदर्शिता का उपयोग करना ही होगा।

विडम्बना तो यह है कि मतदाता जहां ज्यादा जागरूक हुआ है, वहां राजनीतिज्ञ भी ज्यादा समझदार हुए हैं। उन्होंने जिस प्रकार चुनावी शतरंज पर काले-सफेद मोहरें रखे हैं, उससे मतदाता भी उलझा हुआ है। अपने हित की पात्रता नहीं मिल रही है। कौन ले जाएगा देश की एक अरब तीस करोड़ जनता को नये भारत का निर्माण करने की दिशा में। सभी नंगे खड़े हैं, मतदाता किसको कपड़े पहनाएगा, यह एक दिन के राजा पर निर्भर करता है।

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