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किसान के दर्द की दवा क्या है?

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प्रधानमंत्री और किसान के बीच का रिश्ता कुछ ऐसा होता है, कोई समझे तो…
डॉ. के.एस. राणा
कुलपति, कुमाऊं विश्वविद्यालय

कृषि क़ानूनों के विरुद्ध ये आंदोलन भी अजूबा है। इसमें कोई पार्टी, धर्म, जाति का पोषण नहीं है। हालाँकि समर्थन सभी का अप्रत्यक्ष रूप में है। किसान बिना शर्त वार्तालाप चाहते है। यह राजनीति से प्रेरित आंदोलन नहीं है, किंतु इस आंदोलन ने राजनीतिज्ञों को इन धरती पुत्रों का समर्थन करने के लिए मजबूर कर दिया है। क्योंकि इस आंदोलन में किसानों के परिवार खाना साथ लेकर और गाना गाने सहित सभी बंदोबस्त करके लम्बी लड़ाई पर निकले हैं। जैसा कभी महेंद्र सिंह टिकैत किया करते थे। बहुत दिनों के बाद सम्पूर्ण समाज जुड़ रहा है,जहाँ सुप्रीम कोर्ट के गेट पर भी सीनियर एडवोकेट फुलका जी के नेतृत्व में भी समर्थन दिखाई दिया।

तथ्य पूर्ण बात ये है कि किसानों के नाम पर जमींदार किसान अपनी ताकत दिखा रहे हैं। कमीशन खोरी और मंडियों के नाम पर खेती करने वालों के उत्पीड़न का कारण साबित होते रहे कानूनों को लागू रखने के लिये यह आंदालन है। क्योंकि मंडी कानून ईमानदार सच्‍चे भूमिपुत्रों के लिये थे। जबकि इनकी आड़ में ठेकेदार, कमीशन खोर और भ्रष्‍ट नौकरशाही पनप गयी। इसी से खेतिहर श्रमिकों के इस परजीवी वर्ग को अब कष्‍ट हो रहा है। इसी वर्ग ने आंदोलन को चालू रखने के लिये भरपूर गल्‍ला व चंदा दिया है। चूंकि भारत में लोकतंत्र है और भीडतंत्र उस पर सबसे ज्‍यादा असर डालता है। इसलिए कोई सामयिक रास्ता तो निकालना ही पड़ेगा।

वस्तुतः ये आक्रोश किसानों की लम्बे अर्से की उपेक्षा का परिणाम भी है। हरित क्रांति का दौर इंदिरा जी, शास्त्री जी के समय शुरू हुआ, तो हरियाणा और पंजाब में मंडियों का जाल बिछ गया। क्योंकि देश को खाद्यान्न की ज़रूरत थी। अतः APSC मंडियों तक गाँव में सड़कें भी मंडी समिति बना रही थीं। अधिक उत्पादन के डर से सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य MSP की घोषणा की, जो मोदी जी के कार्यकाल में बढ़ायी भी जाती रहीं। आज भी हरियाणा और पंजाब में किसानों को MSP के माध्यम से 75 हज़ार करोड़ से अधिक वार्षिक मिलता है। मोदी सरकार स्पष्ट कह चुकी है कि ये वयस्था बनी रहेगी, लेकिन किसान को यहाँ भरोसा नहीं हो पा रहा है। क्योंकि दो दशक से मंडी एवं MSP नीति ख़त्म करने की बात चलती रही थीं। राजनेता, अर्थशास्त्री यह प्रचार करते रहे हैं, कि लम्बे समय से इसी बात पर किसानों में असमंजस है कि कॉर्पोरेट क़ानून बन रहा है और शनैः शनैः किसानों का दोहन होने लगेगा? इससे देश में दो बाज़ार बन जाएँगे, एक मंडी के बाहर-जहां टैक्स नहीं देना होगा। वहीं दूसरी मंडी में टेक्स देकर धीरे से व्यापारी फसल बाहर से ख़रीदेगा। इस लिहाज से मंडी स्वतः ही ख़त्म हो जाएँगी, जिससे मंडी MSP नीति स्वतः समाप्त हो जायेगी। यही संकट किसानों के मन में कौंध रहा है।

अमेरिका, यूरोप में भी किसान खेती को घाटे का सौदा मान रहा है और भारत में भी-
देश में आज क़रीब 40 हज़ार मंडियों की ज़रूरत है, किंतु अभी कुल 7000 मंडियाँ ही हैं, जो अधिकांश पंजाब और हरियाणा में हैं। यूनाइटेड पंजाब के किसान नेता सर छोटूराम और प्रताप सिंह केरों ने इस दिशा में बहुत काम किया था! बाद में के कृषि राजस्व मंत्री चौ. चरण सिंह ने भी मंडी योजना को मज़बूत किया। ”उनका मानना था कि किसानों को गाँव के पास मंडी मिलेगी, तो उनका उद्धार होगा। “ये बातें किसानों के दिमाग़ में घर किए हुए हैं, क्यूँकि किसान रूढ़िवादी होता है। अतः उसी बात पर भरोसा क़ायम है।

अन्य प्रमुख मुद्दा एक ये भी है कि क़रीब 20 फसलों का MSP घोषित होता है, किंतु इनकी ख़रीद नहीं होती। मात्र गेंहूं और धान ही ख़रीदे जाते हैं। इन सभी फसलों की MSP ख़रीद अनिवार्य कर दी जाय, तो छोटे और सीमांत किसान भी सुद्रण हो जाएँग। जिनके पास बेचने को कुछ नहीं बचता, उनकी आय सुनिश्चित करने हेतु मोदी जी ने क्रांतिकारी कदम उठाते हुए 6000 रुपये कि किसान निधि घोषित की है उसे बढ़ाकर 20 हज़ार रुपये कर दिया जाय, तो छोटा किसान भी आत्मनिर्भर हो सकता है।

एक उदाहरण देश के सामने है-अमूल डेरी की जड़ें गुजरात में ही सहकारी नीति पर जमीं हैं, जो एक सफल प्रयोग है। क्योंकि 70% मुनाफ़ा उत्पादक किसान को ही जाता है। इस योजना को मोदी जी का सरंक्षण रहा है, तो क्या ये रीति छोटे फल, सब्ज़ी, अनाज के बारे में भी लागू नहीं हो सकती? गम्भीरता से विचार करने का विषय है। किसानों को अपनी ही नीति में एक बिंदु जोड़ कर पूरे देश में MSP सभी फसलों के लिए अनिवार्य कर दें, तो किसान के दर्द का निवारण निश्चित रूप से हो जायेगा!

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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