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क्यों जरूरी है पुलिस हिरासत में सबकी जान सुरक्षित रहना?

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आखिरकार अब एक उम्मीद पैदा तो हुई है कि देश में पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों पर लगाम लग सकेगी। यह उम्मीद इसलिए पैदा हुई है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ताजा अति महत्वपूर्ण निर्णय में पुलिस सीबीआई, राष्ट्रीय जांच एजेंसी, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो वगैरह को इस बाबत एक अहम निर्देश दिए हैं।

केन्द्र और राज्य सरकारों को दिए निर्देश में साफ कहा गया है कि सभी थानों में सभी जगह अब सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं। इसके साथ ही ये भी सुनिश्चित किया जाए कि सीसीटीवी कैंमरे रात के माहौल को भी कायदे से रिकॉर्ड कर रहे हों। भारत में पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों की जांच के दौरान आरोपियों के साथ मारपीट के परिणाम स्वरुप मारे जाने के बढ़ते मामलों के बाद सुप्रीम कोर्ट को उपर्युक्त सख्त फैसला लेना पड़ा।

निश्चित रूप से पुलिस हिरासत में होने वाली संदिग्ध मौतों को किसी भी स्थिति में मानवीय और सही नहीं माना जा सकता है। इससे भारत की पुलिस व्यवस्था पर सीधा सवाल खड़ा होता है। आपको पुलिसिया बर्बरता के रोंगटे खड़े कर देने वाले कृत्य तो लगातार पढ़ने-सुनने को मिलते ही हैं । कभी-कभार तो दोषी पुलिसकर्मियों पर एक्शन हो भी जाता है। पर उसके कुछ दिन बाद से ही फिर से सब कुछ सामान्य सा दिखने होने लगता है। निलंबित पुलिस वाले फिर से देर–सबेर सेवा में पुनः बहाल हो जाते हैं। पर यह सब तो अब बंद होना चाहिए।

“इंडिया एनुअल रिपोर्ट ऑन टार्चर 2019” के मुताबिक़, भारत में पिछले साल हिरासत में कुल 1731 आरोपियों की मौतें हुईं। इनमें से 125 मौतें तो पुलिस हिरासत में हुईं थीं। अगर सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्देश को एक मिनट के लिए छोड़ भी दें, तो मानवाधिकारवादी संगठन तो लगातार न्यायिक हिरासत में लोगों की मौत पर चिंता जाहिर करते रहे ही हैं, लेकिन उनके सुझाव और सिफारिशों पर कोई खास गौर नहीं करता।

आपको याद ही होगा कि कुछ माह पहले ही तमिलनाडु के तूटीकोरेन में क्राइम ब्रांच-सीआईडी ने दो सब-इंस्पेक्टर सहित छह लोगों को पिता-पुत्र को पुलिस हिरासत में बुरी तरह से पीटने से हुई मौत के मामले में गिरफ्तार किया था। पी जयराज और उनके बेटे जे बेनिक्स की पुलिस हिरासत में बर्बरतापूर्ण मौत हो गई थी। इस घटना ने एक बार फिर हिरासत में होने वाली मौतों में पुलिस अधिकारियों को सजा मिलने की कम दर की ओर मजबूती से ध्यान आकर्षित किया था।

हालांकि यह तो मानना ही होगा कि न्यायिक हिरासत में होने वाली सभी मौतों के लिए पिटाई और जेलकर्मियों की ज्यादतियों को ही दोषी नहीं माना जा सकता है। इनके पीछे कैदियों की आपसी मारपीट बीमारी, इलाज में देरी और उपेक्षा, खराब रहन-सहन या वृद्धावस्था जैसे अन्य कारण होते हैं।

भारतीय पुलिस सेवा के मशहूर पुलिस अधिकारी और दिल्ली पुलिस के पूर्व कमिशनर पी.एस.भिंडर ने एक बार सही ही कहा था कि पुलिस को शातिर अपराधियों के साथ कई बार सख्ती करनी ही पड़ती है, सच्चाई का पता लगाने के लिए। क्योंकि, वे बिना कठोर कदम उठाए मानते ही नहीं। वे सही बात बताने के लिये टूटते नहीं। यहां तक तो ठीक है। लेकिन पुलिस को अपनी सीमाओं को भी तो समझना होगा। उसे याद रखना होगा कि पुलिस थाने में आरोपी की मौत उसकी कार्यशैली पर काला दाग ही तो होती है।

बिस्किट किंग राजन पिल्लई कभी ब्रिटानिया के चेयरमैन थे। उन्हें पुलिस ने धोखाधड़ी के आरोप में पकड़ा था। उनकी राजधानी के तिहाड़ जेल में ही 1993 में मृत्यु हो गई थी। उनकी मौत को लेकर भी बहुत तगड़ा बवाल हुआ था। तब भी यह सवाल उठा था कि जब राजन पिल्लै जैसा धनी और असरदार इंसान भी पुलिस हिरासत में सुरक्षित नहीं है, तो बाकी की बात करना ही बेकार है।

दरअसल भारत में जेलों की निगरानी एक बोर्ड द्वारा की जाती है, जिसमें अन्य लोगों के साथ जिलाधिकारी या उप-मंडल अधिकारी (एस.डी.एम) और सिविल सोसायटी के कुछ सदस्य शामिल होते हैं। उन्हें न केवल उनके उचित कामकाज पर ध्यान देना होता है बल्कि, कैदियों की रोजमर्रा की परेशानी का भी निवारण करना होता है। हालांकि व्यवहार में यह कभी नहीं होता ।

हमारे देश में अब भी पुलिस के जुल्मों-सितम पर जब बात होती है तो ब्रिटिश पुलिस के अमानवीय यातनाओं के उदाहरण दिए जाने लगते हैं। बेशक, उस दौर की पुलिस का चेहरा भी कम खौफनाक नहीं था। चिटगांव षडयंत्र केस के नायक और महान स्वाधीनता सेनानी सूर्य सेन के शरीर की तमाम हड्डियां तोड़कर बंगाल की खाड़ी में फेंक दिया गया था। इस तरह के तमाम दिल-दहलाने वाले कई उदाहरण मिल जाते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार 2001 और 2018 के बीच, देश भर में 1,727 लोगों की हिरासत में मौतें हुईं। इसमें से 334 पुलिसवालों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई और केवल 26 को दोषी ठहराया गया। वास्तव में 2015 से 2018 तक हिरासत में हुई मौत के लगभग 180 मामलों में, जहां मजिस्ट्रियल जांच का आदेश दिया गया था, एक भी पुलिसकर्मी को दोषी नहीं ठहराया गया, हालांकि 80 से अधिक के खिलाफ चार्जशीट भी दाखिल की गई थी।

देखिए, समाज को भी पुलिस हिरासत में किसी इंसान की मौत को लेकर आंदोलित तो होना ही चाहिए। अभी तक इस मोर्चे पर भारतीय समाज का रवैया आमतौर पर ठंडा ही रहता है। जरा याद करें कि कुछ माह पहले अमेरिका में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड के हत्यारे पुलिस अधिकारी डेरेक चौविन की पत्नी कैली ने उससे तलाक लेने का फैसला लिया था। वह अपने पति के कृत्य से नाराज और शर्मिंदा थी। वह नहीं चाहती थी कि उसे ऐसे धूर्त और क्रूर आदमी की पत्नी कहा जाये, जिसने एक अश्वेत की निर्मम हत्या की हो। जरा सोचिए कि कितना ऊँचा जमीर होगा कैली का।

क्यों भारतीय समाज एनकाउंटर पसंद पुलिस वालों, भ्रष्ट सरकारी बाबुओं, टैक्स न देने वाले कारोबारियों, देश के रक्षा सबंधी अहम दस्तावेज दुश्मनों को चंद सिक्कों के लिए थमाने वालों के खिलाफ खड़ा नहीं होता?

दरअसल यह सबके लिए जानना जरूरी है कि जब तक किसी इंसान पर कोई दोष कोर्ट में साबित नहीं हो जाता तब तक तो वह निरपराध ही माना जाय। इस तथ्य को पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों को भी खासतौर पर जानना-समझना होगा। इसलिए उन्हें जांच के नए-नए उपाय खोजने होंगे, ताकि आरोपी लंबे समय तक पुलिस को चकमा ना दे सके। यह अच्छी बात है कि अब सीसीटीवी कैमरों और मोबाइल के प्रचलन ने अनुसंधान को ज्यादा प्रमाणिक बनाने में मदद तो की ही है I

इस बीच, आशा करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करने में विलंब नहीं होगा। देखिए, सबकी चाहत है कि जांच एजेंसियां अपना काम बेहतर तरीके से करें। वे अपराधियों से जरुरत से मुताबिक सख्ती से पेश भी आएं। पर यह अपेक्षा भी रहेगी कि पुलिस हिरासत में सब सुरक्षित रहें। यही देश हित में है और भारतीय संस्कृति और परम्परा के अनुरूप भी।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)

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