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गठबंधन को अवध-पूर्वांचल में बेस वोट से आगे तलाशना होगा समर्थन, NDA ने भी झोंकी पूरी ताकत झोंकी

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लखनऊ। बसपा, सपा और रालोद गठबंधन के अंकगणित को अवध-पूर्वांचल में केमिस्ट्री की भी जरूरत पड़ेगी। यह केमिस्ट्री केवल कोर वोटरों की नहीं है, बल्कि इससे आगे का विस्तार ही नतीजे तय करेगा। जिन 41 सीटों पर चुनाव बचे हुए हैं, उनमें से 16 सीटों पर बीजेपी को 2014 में एसपी-बीएसपी के संयुक्त वोट से भी अधिक मिले थे।

अवध और पूर्वांचल की 41 सीटों में 2014 के नतीजों के आधार पर 2 सीटें कांग्रेस के पास और 1 सीट एसपी के पास है। बची 38 सीटों पर एनडीए काबिज है। उपचुनाव के बाद जरूर बीजेपी का आंकड़ा 36 और एसपी का आंकड़ा इस क्षेत्र में 3 पर पहुंच गया। अब अगर एसपी-बीएसपी के गठबंधन को हार के इन आंकड़ों को जीत में बदलना है, तो उन्हें पूर्वांचल में दलित, मुस्लिम और यादव के बेस वोट के आगे भी समर्थन तलाशना होगा।

हर चरण में बदल रहा गणित
पहले दो चरण के चुनाव वेस्ट यूपी में हुए थे। यहां की 16 सीटों में एक-दो को छोड़ दिया जाए, तो हर सीट पर मुस्लिम-दलित वोटरों की भूमिका अहम थी। जाट और यादवों की मौजूदगी इस गणित को गठबंधन के लिए और माकूल बना रही थी। इसी तरह तीसरे-चौथे चरण की जिन 13 सीटों पर चुनाव हुआ, उसमें कुछ सीटों पर मुस्लिम-दलित समीकरण काफी प्रभावी था। वहीं, करीब आधी सीटें यादव बेल्ट की थी। यहां एसपी-बीएसपी का कोर वोट का मिलना आंकड़ों में प्रभावी दिखता है।

अब बचे तीन चरणों की 41 सीटों में सवर्ण, गैर-यादव ओबीसी व अति-पिछड़े वर्ग के वोटरों की भूमिका ही कई सीटों पर नतीजे तय करने की स्थिति में होगी। सवर्ण और गैर-यादव ओबीसी में बीजेपी की गहरी पैठ अब भी बने रहने के दावे हैं। ऐसे में जब तक गठबंधन की घुसपैठ इसमें नहीं होगी, तब तक अवध-पूर्वांचल में नतीजे अपने पक्ष में हासिल करना आसान नहीं होगा।

‘आधे’ की लड़ाई आसान नहीं
बची 41 सीटों में एसपी-बीएसपी 39 सीटों पर लड़ रही हैं। रायबरेली और अमेठी की सीट पर गठबंधन ने कांग्रेस के समर्थन में उम्मीदवार नहीं खड़े किए हैं। इस तरह बची सीटों में 39 पर एसपी-बीएसपी गठबंधन के उम्मीदवार हैं। इन 39 में से 16 सीटों पर बीजेपी या उसके सहयोगी दल को पिछले चुनाव में एसपी-बीएसपी से भी अधिक वोट मिले थे। यह अंतर 6 से 42 फीसदी तक का है।

मसलन, लखनऊ में गठबंधन का कुल वोट 12% भी नहीं था। बाराबंकी, फैजाबाद, मीरजापुर, कुशीनगर, फूलपुर, गोरखपुर, देवरिया में तो बीजेपी ने गठबंधन से 12 से 15% तक अधिक वोट हासिल किए थे। हालांकि, उपचुनाव में एसपी ने गोरखपुर और फूलपुर पर बीएसपी के सहयोग से कब्जा जमाया था।

गोंडा, प्रतापगढ़, महाराजगंज, सलेमपुर, बांसगांव और रॉबर्ट्सगंज में बीजेपी को गठबंधन के कुल वोट से भी 6% अधिक वोट मिले थे। फतेहपुर में भी बीजेपी का कुल वोट गठबंधन से अधिक था। पीएम नरेंद्र मोदी की संसदीय सीट वाराणसी में एसपी-बीएसपी का कुल वोट ही 10% के आस-पास था। इसके अलावा बहराइच, बलिया और घोसी में भी गठबंधन और बीजेपी के वोट या तो आस-पास थे या दोनों में मामूली अंतर ही था।

त्रिकोणीय मुकाबले में कोर वोट साधने की चुनौती
एसपी-बीएसपी गठबंधन के सामने बड़ी चुनौती त्रिकोणीय लड़ाई में अपने कोर वोट को भी बचाए रखने की है। पिछली बार मोदी लहर में भी कुछ सीटों पर एसपी-बीएसपी के अलावा तीसरे फैक्टर ने विपक्ष को नजदीकी जीत से दूर कर दिया था। मसलन गाजीपुर में मनोज सिन्हा की जीत का अंतर वहां कौमी एकता दल से लड़े डीपी यादव के मिले वोट से कम था। बलिया से अफजाल अंसारी ने बीजेपी की जीत का रास्ता खोल दिया था। घोसी में मुख्तार अंसारी की उम्मीदवारी बीजेपी के लिए फायदेमंद हुई थी।

इस बार इन सीटों पर ये चेहरे फिलहाल एसपी-बीएसपी गठबंधन का ही हिस्सा हैं। गठबंधन की असली मुश्किल कांग्रेस खड़ी कर रही है। फैजाबाद, कुशीनगर, धौरहरा, बाराबंकी, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, सलेमपुर, मीरजापुर जैसी कुछ सीटों को छोड़ दिया जाए, तो कांग्रेस ने जिन चेहरों को मैदान में उतारा है वे अधिकतर एसपी-बीएसपी से ही आए हैं। अपने पूर्ववर्ती दलों में इनकी भूमिका प्रभावी थी। इसमें कई सांसद व मंत्री भी रह चुके हैं। ऐसे में ये ‘असंतुष्ट’ असर दिखा गए तो बीजेपी के लिए ‘संतुष्टि’ के मौके बढ़ जाएंगे।

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