ੴ ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ ਅਜੂਨੀ ਸੈਭੰ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥
॥ ਜਪੁ ॥
ਆਦਿ ਸਚੁ ਜੁਗਾਦਿ ਸਚੁ ॥ ਹੈ ਭੀ ਸਚੁ ਨਾਨਕ ਹੋਸੀ ਭੀ ਸਚੁ ॥1॥
एक ओंकार सतनाम, कर्तापुरख, निर्माह निर्वैर, अकाल मूरत, अजूनी सभं. गुरु परसाद ॥
॥ जप ॥
आद सच, जुगाद सच, है भी सच, नानक होसे भी सच ॥
ये गुरुनानक देव जी के मुख से निकले केवल कुछ शब्द नहीं हैं। ना ही इनकी ये पहचान है कि ये गुरुग्रंथ साहिब का पहला भजन है। ये तो वो मूल मंत्र है जो ना सिर्फ सिख संगत को उस सर्वशक्तिमान ईश्वर के गुणों से रूबरू कराता है बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज को ही दिशा दिखाता है। श्री गुरुनानक देव जी के मुख से निकले ये शब्द वो बीज हैं जो कालांतर में सिख धर्म की नींव बने।
विश्व के पांचवे सबसे बड़े धर्म के संस्थापक गुरुनानक देव जी की सीखों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता की बात करने से पहले हम सिख शब्द को समझ लें। दरअसल सिख का अर्थ होता है शिष्य। अर्थात जो गुरुनानक देव जी की सीखों को एक शिष्य की भांति अपने आचरण और जीवन में अपना ले, वो सिख है और हम सभी जानते हैं कि उनकी सीखों में सबसे बड़ा धर्म मानवता है इसलिए उनकी सीखें हर काल में प्रासंगिक हैं।
जब गुरुनानक देव जी कहते हैं कि “एक ओंकार, सतनाम”, तो उनके आध्यात्म की इस परिभाषा को केवल उनके अनुयायी ही नहीं बल्कि प्राचीन वेद विज्ञान से लेकर आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करने पर विवश हो जाता है। वे कहते हैं, एक ओंकार सतनाम यानी ओंकार ही एक अटल सत्य है। ओंकार यानी ॐष्। यह तो हम सभी जानते हैं कि हम जो भी कहते हैं, जिन भी शब्दों का उच्चारण करते हैं उनकी एक सीमा होती है लेकिन ओंकार असीमित है। प्राचीन ऋषियों ने भी ॐ को अजपा कहा है क्योंकि ॐ शब्दातीत है यानी शब्दों से परे है। और आधुनिक विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि ॐ कोई ध्वनि नहीं बल्कि एक अनाहत नाद है। क्योंकि ध्वनि तो दो वस्तुओं के टकराने से या कंपन से उत्पन्न होती है लेकिन ॐ किसी से टकराने से उत्पन्न नहीं हुआ। जहाँ टकराहट हो वहाँ भला ॐ कहाँ? जब भीतर बिल्कुल शांति हो, अंदर के सारे स्वर बंद हो जाएं, सभी द्वंद मिट जाएं तो एक अनाहत से हमारा संपर्क होता है और हम ॐ से जुड़ पाते हैं और एक अनोखी ऊर्जा को महसूस कर पाते हैं। ॐ का हमारे भीतर के सत्य और शुभ से लेना देना है। इसलिए जब वे कहते हैं एक ओंकार तो वे कहना चाहते हैं कि ईश्वर एक ही है जो हम सब के भीतर ही निवास करता है और यही सबसे बड़ा सत्य भी है।
जब 15 वीं सदी में गुरुनानक देव जी ने सिख धर्म की स्थापना की थी, तो यह धर्म के प्रति लोगों के नज़रिए पर एक क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत थी। यह उस विरोधाभासी सोच पर प्रहार था जो व्यक्ति के सांसारिक जीवन और उसके आध्यात्मिक जीवन को अलग करती थी। अपने विचारों से गुरुनानक देव जी ने उस काल के सामाजिक और धार्मिक मूल्यों की नींव ही हिला दी थी। उन्होंने पहली बार लोगों को यह विचार दिया कि मनुष्य का सामाजिक जीवन उसके आध्यात्मिक जीवन की बाधा नहीं है बल्कि उसका अविभाज्य हिस्सा है। सदियों की परंपरागत सोच के विपरीत गुरुनानक जी वो पहले ईश्वरीय दूत थे जिन्होंने जोर देकर कहा था कि ईश्वर पहाड़ों या जंगलों में भूखा रहकर खुद को कष्ट देने से नहीं मिलते बल्कि वो सामाजिक जीवन जीते हुए दूसरों के कष्टों को दूर करने से मिलते हैं। उनके अनुसार व्यक्तिगत मोक्ष का रास्ता सेवा कार्य द्वारा समाज के लोगों को दुखों से मोक्ष दिला कर निकलता था। इसके लिए उन्होंने अपने भक्तों को सेवा ते सिमरन का मंत्र दिया। उस दौर में जब लोगों को यकीन था कि ईश्वर से एकाकार के लिए सन्यास के मार्ग पर चलना आवश्यक है, उन्होंने अपने भक्तों को मध्यम मार्ग अपनाने पर बल दिया जिस पर चलकर गृहस्थ आश्रम का पालन भी हो सकता है और आध्यात्मिक जीवन भी अपनाया जा सकता है। आज के भौतिकवादी युग में गुरुनानक देव जी का यह नज़रिया आत्मकल्याण ही नहीं समाज कल्याण की दृष्टि से भी बेहद प्रासंगिक है। और उन्होंने अपने इस जीवन दर्शन को अपनी जीवन यात्रा से चरितार्थ करके भी दिखाया। अपने जीवन काल में उन्होंने खुद एक गृहस्थ जीवन जीते हुए आध्यात्म की ऊँचाइयों को छूने वाले एक संत का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण समाज के सामने प्रस्तुत किया। इस सोच के विपरीत कि संसार माया है, मिथ्या है, झूठ है, फरेब है, उन्होंने कहा कि संसार ना सिर्फ सत्य है बल्कि वो साधन है, वो कर्मभूमि है जहाँ हम ईश्वर की इच्छा से उनकी इच्छानुसार कर्म करने के लिए आए हैं। उनका मानना था, हुकम राजायी चलना नानक लिख्या नाल अर्थात सबकुछ परमात्मा की इच्छा के अनुसार होता है और हमें बिना कुछ कहे इसे स्वीकार करना चाहिए।
लेकिन परमात्मा के करीब जाने के लिए संसार से दूर होने की आवश्यकता नहीं है बल्कि उस परमपिता के द्वारा दिए गए इस जीवन में हमारा नैतिकता पूर्ण आचरण ही हमारे जीवन को उसका आध्यात्मिक रूप और रंग देता है। उन्होंने ध्यान, तप योग से अधिक सतकर्म को और रीत रिवाज से अधिक महत्व मनुष्य के व्यक्तिगत नैतिक आचरण को दिया। इसलिए वे कहते थे कि सत्य बोलना श्रेष्ठ आचरण है लेकिन सच्चाई के साथ जीवन जीना सर्वश्रेष्ठ आचरण है। आज जब पूरी दुनिया में दोहरे चरित्र का होना ही सफलता प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण गुण बन गया हो और नैतिक मूल्यों का लगातार ह््रास हो रहा हो, तो गुरुनानक जी की यह सीखें सम्पूर्ण विश्व के लिए पथप्रदर्शक का काम कर सकती हैं।
आज जब मशीनीकरण के इस युग में हम उस मोड़ पर पहुंच गए हों जहाँ समय के अभाव में मनुष्य खुद भी कुछ कुछ रोबोटिक सा होता जा रहा हो और उसका सुकून भी छिनता जा रहा हो, तो गुरुनानक देव जी की दिखाई राह उसे वापस ईश्वर से जोड़कर दैवीय सुकून का एहसास करा कर असीम मानसिक शांति दे सकती है। ईश्वर से जुड़ने के लिए वो वैराग्य त्याग तप या फिर सांसारिक सुखों से दूर होने के बजाए संसार को प्रेम से गले लगाने की सीख देते थे, दूसरों के दुखों को दूर करने की सीख देते थे जिसके लिए उन्होंने जीवन जीने की बहुत ही व्यवहारिक राह दिखाई थी जो आज भी प्रासंगिक है। आज के दौर में जब मनुष्य अपने खुद के लिए भी समय न निकाल पा रहा हो ऐसे समय में गुरुनानक देव जी के द्वारा जीवन जीने के लिए दिए गए बेहद सरल तीन सूत्र निस्संदेह मनुष्य को न सिर्फ खुद से बल्कि अपने परिवार और समाज दोनों से जोड़कर असीम शांति का अनुभव करा कर उसके तन मन और जीवन तीनों में एक नई ऊर्जा भर सकते हैं। ये तीन सूत्र हैं, जपना, कीर्त करना और वंड के छकना।
1,जपना, यानी सबसे पहले जप करना अर्थात उस परम पिता का नाम जपना जब भी समय मिले जहाँ भी जगह मिले पूरी श्रद्धा से उस सर्वशक्तिमान को याद करना उसका शुक्रिया अदा करना। उनका कहना था कि इसके लिए मंदिर या माजिद जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि ईश्वर तो हमारे भीतर है। वो खुद भी कहीं भी कभी भी ईश्वर के ध्यान में बैठ जाते थे। कभी बकरियाँ चराते समय तो कभी खेतों में, कभी किसी पेड़ के नीचे तो कभी समुद्र में।
2, दूसरा कीर्त मतलब कमाई करना, क्योंकि प्रभु ने हमें जो परिवार दिया है उसका पालन करने के लिए हमें कर्म करना चाहिए। वे कहते थे, किसी से मांग कर नहीं खाना और ना किसी का हक मार कर खाना। अपनी मेहनत पर ही हमारा हक है और मेहनत करना हमारा फ़र्ज़ है।
3, तीसरा वंड के छकना मतलब बांट कर खाना। वे कहते थे कि हर मनुष्य को अपनी कमाई का दसवां हिस्सा परोपकार में लगाना चाहिए। वो स्पष्ट कहते थे कि धन को केवल जेब तक ही सीमित रखना चाहिए उसे अपने हृदय में स्थान नहीं बनाने देना चाहिए वो क्योंकि मानव की मुक्ति का मार्ग समाज के दुखों की मुक्ति से होकर निकलता है धन दौलत इकट्ठा करने से नहीं।
दरअसल वो जानते थे कि कोई भी समाज तब तक तरक्की नहीं कर सकता और ना ही स्वस्थ रह सकता है जब तक कि उस समाज में कर्म के महत्व को एक गौरव नहीं प्रदान किया जाता। इसलिए उन्होंने कर्म को मानव जीवन का ना सिर्फ एक महत्त्वपूर्ण गुण बताया अपितु उसे मनुष्य की सामाजिक और आध्यात्मिक जिम्मेदारी भी बताया। यही कारण है कि आज भी देश या विदेश के किसी भी संकट के समय चाहे वो युद्ध हो या कोई प्राकृतिक आपदा, सिख संगत मदद के लिए सबसे आगे रहती है। सिख समाज ना सिर्फ गुरुद्वारे में लंगर बल्कि जरूरत के वक्त जरूरतमंदों को निःशुल्क स्वच्छ भोजन पानी और अन्य बुनियादी सुविधाएं देने के लिए आगे आता है।
इसके अलावा गुरुनानक देव जी का कहना था कि इस धरती पर सभी मनुष्य समान हैं वे ऊंच नीच को नहीं मानते थे और ना ही जात पात के भेदभाव को। उनका कहना था कि न कोई हिन्दू है ना मुसलमान। सभी लोग एक ही ईश्वर की संतानें हैं। आज जब पूरे विश्व में धर्म के नाम पर आतंकवाद और हिंसा की घटनाएं लगातार हो रही हैं तो गुरुनानक जी के ये शब्द बहुत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक हो जाते हैं। उनका स्पष्ट मानना था कि दुनिया में दुख क्लेश और असंतोष का मूल कारण जाति और धर्म के नाम पर किया जाने वाला भेदभाव है। और इस भेदभाव को मिटाने के लिए भी उन्होंने बहुत ही सीधा और सरल उपाय बताया था, संगत ते पंगत। अर्थात बिना किसी धर्म जाति नस्ल या रंग के भेदभाव के बिना एक पंगत यानी पंक्ति में बैठकर एक साथ भोजन यानी लंगर की शुरुआत की।
इसके पीछे गुरुनानक जी का स्पष्ट संदेश था कि जितने भी संघर्ष हैं, युद्ध हैं, असुरक्षा और निराशा की भावना, गरीबी और अन्य सामाजिक बीमारियाँ हैं, इंसान इन पर तब तक विजय नहीं प्राप्त कर सकता जब तक कि वो अपने अहम का त्याग ना कर दे। उनका मानना था कि यह स्वयं मनुष्य के हाथ में है कि उसके हृदय में ईश्वर का वास हो या फिर उसके अहम का। इसलिए वे समझाते थे कि किस बात का घमंड? तुम्हारा कुछ नहीं है, खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाओगे। कुछ करके जाओगे तो लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहोगे। आज जब हम अपने आसपास समाज में भौतिकवाद में जकड़े लोंगो में वी आई पी संस्कृति और स्वार्थपूर्ण आचरण का बोलबाला देखते हैं तो गुरुनानक देव जी की यह बातें और उनकी एहमियत सहसा स्मरण हो उठती हैं।
लेकिन अपनी सीखों से विश्व इतिहास में पहली बार मानवता और सत्कर्मों को ही सबसे बड़ा धर्म बताकर सिख धर्म की नींव रखने वाले गुरुनानक देव जी ने समाज में एक और जो सबसे बड़े क्रांतिकारी बदलाव का आगाज़ किया, वो था स्त्रियों को बराबरी का दर्जा देना। 15 वीं शताब्दी वो दौर था जब चाहे इस्लाम हो चाहे ईसाईयत स्त्री को अपवित्र माना जाता था और हिन्दू धर्म में भले ही स्त्री को देवी का दर्जा प्राप्त था लेकिन ईश्वर की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को साधु का जीवन व्यतीत करना पड़ता था, विवाहित जीवन और स्त्री से दूर रहना पड़ता था, गुरुनानक देव जी ने ना सिर्फ स्त्री को पुरूष के साथ समानता का दर्जा दिया बल्कि वैवाहिक जीवन को भी पवित्रता प्रदान की। अगर हमने गुरुनानक जी के संदेशों को गहराई से समझा होता और एक समाज के रूप में अपने आचरण में उतारा होता तो आज हमें महिला सशक्तिकरण और स्त्री मुक्ति जैसे शब्दों की बातें ही नहीं करनी पड़ती।
दरअसल गुरुनानक देव जी का आध्यात्म आडंबर युक्त नहीं आडंबर मुक्त है। इसलिए जब वे नौ वर्ष के थे और उनका जनेऊ संस्कार होना था, तो उन्होंने जनेऊ पहनने से साफ इंकार कर दिया था। उनका कहना था कि मनुष्य जब इस संसार को छोड़ कर जाएगा तो कपास से बना जनेऊ का यह धागा तो यहीं रह जाता है। मुझे जनेऊ पहनाना ही है तो वो जनेऊ पहनाओ जो मेरे साथ परलोक में भी जाए। जब उनसे पूछा गया कि ऐसा जनेऊ किस प्रकार का होता है, तो उन्होंने कहा,
“दया कपाह संतोख सूत जत गंदी सत बट
ऐह जनेऊ जीअ का हई तां पाडें घत” अर्थात
इस जनेऊ को बनाने के लिए जब दया रूपी कपास, संतोष रूपी सूत, जत रूपी गांठ और सत रूपी बल का प्रयोग किया गया हो तो यह आत्मा का जनेऊ बन जाता है। यह जनेऊ पहन कर मनुष्य जब अच्छे काम करता है, सच्ची नेक कमाई करता है तो वह नीच जाति का होकर भी स्वर्ण जाति का बन जाता है।
ऐसे गुरुनानक देव जी की सीखें हर काल में प्रासंगिक रहेंगी।