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भारत में लाॅक डाउन, मौत के दो राहे पर हम

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असलम के सैफी

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को लाॅक डाउन का ऐलान करते वक्त कतई नहीं सोचा होगा कि 50 दिन में उनका यह फैसला मुल्क को उस मोड़ पर लाकर खड़ा कर देगा जहां से जो दो रास्ते हैं, एक पर करोना से और दूसरी पर भूख से मौत के झपट्टे का खतरा है। लाजिम है जिस हुकूमत पर जम्हूरियत का तमगा लगा हो वो भुखमरी से मौत के मंजर की जवाबदेही से बेहतर वैश्विक बीमारी से बस्तियों में मरघट सा मातम पसरने का ठीकरा सिर पर उठाने को तैयार होगी।

यकीनन यह कहना कतई बेजा बात नहीं, हुकूमत का लाॅक डाउन का फैसला वगैर मुकम्मल तैयारी का निकला। बेशक इसके तीन चरणों में न तो संक्रमित होने वालों की तादात में कमी आई और न ही मौतों का सिलसिला थमा। सरकार ने जो कोरोन्टाइन सेंटर बनाए, उनकी बदइंतजामी हैरान करने वाली रही। हुकूमत का यह भरोसा टूटता दिखा कि जो जहां है, वहीं ठहरे, उसको भोजन का बंदोबस्त होगा। देशभर में यह ऐलान धरातल पर इतना प्रभावी नहीं दिखा कि प्रवासी मजदूर उन हालातों में खुद को जिंदा महसूस करते।

हर देश की अपनी जीवन शैली होती है। भारत की तुलना यूरोप या चीन से नहीं की जा सकती है। जहां धार्मिक अंधविश्वास और तर्कहीन मान्यताओं को सरकारें पोषित करती हों, वहां विज्ञान, अनुशासन और चिकित्सकीय जागरूकता घुट्टी पिलाकर यकायक कोरोना से जंग जीतने की कल्पना बेमानी है। मुझे कहते हुए जरा भी हिचक नहीं है कि खुद को चायवाला तो कभी देश का चौकीदार बताने वाले नरेंद्र मोदी जी के मन में हिंदुस्तान के राजमार्गों को चिलचिलाती धूप में कदमों से नापते मजदूरों के प्रति किंचित मात्र भी संवदेना है। यदि होती तो सबसे पहले सरकार उन्हें सुरक्षित उनको उनके घर तक पहुंचाती। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य कि प्रधानमंत्री ने 12 मई को देश के नाम अपने संदेश में सड़क पर पैदल चल रहे करोड़ों प्रवासी श्रमिकों के परिवारों की तकलीफों का कोई जिक्र तक नहीं किया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी भले ही नारा देते हों सबका साथ सबका विकास। पर यह नारा हकीकत से दूर है। मसलन इस नारे में देश के करीब 15 फीसदी आवादी वाले अल्पसंख्यक समाज का भरोसा नहीं है। नागरिकता संसोधन कानून का जिस तरह देशभर में विरोध हुआ, उसमें इसकी झलक मिली थी। यहां यह उल्लेखनीय है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। केंद्र सरकार भले ही इस विरोध को दरकिनार करती रही पर हकीकत यह है कि यह सरकार की बड़ी नाकामी थी। यही नहीं सरकार ने उच्च शिक्षा में 13 प्वाइंट रोस्टर लागू कर संविधान पर ही सीधे सीधे चोट पहुंचाई।

देश में विपत्तियां पहले भी आईं, पर ऐसे मौकों पर सरकारें विपक्ष को हमेशा भरोसे में लेती रही हैं। ऐसा पहली बार हुआ है जब सरकार ने कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए विपक्ष को भरोसे में लेना तो दूर विपक्ष के नेता राहुल गांधी द्वारा कोरोना महामारी से सचेत रहने का बयान दिया तो उसकी सरकार के मंत्रियों ने खिल्ली उड़ाई। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन से सरकार को यह कहकर कटघरे में खड़ाकर दिया कि भारत को कोरोना महामारी फैलने के संबंध में 31 जनवरी को अलर्ट कर दिया गया था। किंतु सरकार ने समय रहते अपेक्षित बंदोबस्त नहीं किए।

केंद्र सरकार ने लाॅक डाउन करते समय न तो इस बात की परवाह की कि देशभर के बड़े शहरों में विभिन्न प्रांतों के करोड़ों मजदूर, रोज कमाने खाने वाले परिवारों का क्या होगा ? प्रधानमंत्री खुद कहते हैं कि इस देश में 130 करोड़ लोग हैं। इस आबादी का बड़ा हिस्सा प्रवासी और देहाड़ी मजदूर है। जब उसे बड़े शहरों में खाने को नहीं मिलेगा तो क्या करेगा ?
बेशक जनता कर्फ्यू की सफलता से उत्साहित प्रधानमंत्री ने देशभर में अलग-अलग जगह फंसे लोगों और नतीजों का अनुमान लगाए बगैर लाॅक डाउन का ऐलान कर दिया।

प्रधानमंत्री खुद सात रेसकोर्स से बाहर देश के किसी इलाके में होते और अचानक उन्हें 21 दिन और फिर 17 दिन और फिर 15 दिन उसी स्थान पर रहने के लिए कह दिया जाता तो क्या करते ?

प्रधानमंत्री बताएंगे कि यदि उनके पास खाने को कुछ न होता तो वे उसे उसी स्थान पर भूखे पेट मर जाते या या फिर जिंदा रहने के लिए वहां से पलायन कर कर अपने घर लौटतें ? बेशक, आप भी भूख से मरना पसंद नहीं करते और जिंदा रहने के लिए जो आम इंसान करता है, वही करते ? आपकी नौकरशाही और पुलिस ने भूखे प्यासे बेबस और लाचार मजदूरों पर कई बार लाठियां चलाई। किसी साधन से अपने घर लौटते पकड़ा तो उन्हें उतार दिया। भूख और प्यास में कई दम तोड़ गए।

आज आप जिस 20 हजार करोड़ रुपये का पैकज दे रहे हो, उसमें किसी मजदूर के लिए रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं है। उसे उसके घर तक सुरक्षित पहुंचाने का जरिया तक नहीं है। हां, विदेश में बसे धनवानों के लिए प्रधानमंत्री के पास जहाज है। कोटा में रहने वाले अमीर के बच्चों को लाने के लिए बसें है पर गरीब का बच्चा रोजगार की तलाश में शहर में फंसा है तो उसे पैदल भी नहीं आने दिया।

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