28 फरवरी 1928 को चन्द्रशेखर वेंकेट रमन ने लोक सम्मुख अपनी विश्व प्रसिद्ध खोज ‘रमन प्रभाव’ की घोषणा की थी। ‘रमन प्रभाव’ के लिए ही 1930 में सीवी रमन को नोबेल पुरस्कार मिला था। राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् एवं विज्ञान मंत्रालय द्वारा रमन की खोज की समृति तथा विज्ञान से लाभों, युवाओं एवं बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं विज्ञान अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न करने तथा आमजन में जागरूकता लाने के उद्देश्य से 1986 से प्रत्येक वर्ष 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है। विज्ञान दिवस के अवसर पर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर विभिन्न प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती है जिनमें विज्ञान विषयक निबंध लेखन, विज्ञान मॉडल निर्माण, प्रोजेक्ट वर्क, विज्ञान प्रदर्शनी, क्विज काम्पटीशन, भाषण एवं वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। इन कार्यक्रमों के माध्यम से विभिन्न स्तर पर विद्यार्थियो में वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं रुचि को परखा और प्रोत्साहित किया जाता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद् 1999 से थीम आधारित आयोजन करता है। 1999 में विषय था ‘हमारी बदलती धरती’। जबकि 2018 के आयोजन का थीम विषय था एक ‘सतत् भविष्य के लिए विज्ञान’। इसी कड़ी में 2019 का विषय है ‘जनमानस के लिए विज्ञान और विज्ञान के लिए जनमानस’। कह सकते हैं कि राष्ट्रीय विज्ञान दिवस ‘रमन प्रभाव’ की खोज को याद करने का दिन हैं।
चंद्रशेखर वेंकटरमन का जन्म 7 नवम्बर 1888 को तमिलनाडु में कावेरी के तटपर स्थित तिरुचिरापल्ली नामक स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आपकी माता पार्वती अम्मा कुशल गृहिणी और पिता चन्द्रशेखर भौतिकशास्त्र एवं गणित के प्राध्यापक थे। घर पर शिक्षा और संगीत का माहौल था। पिताजी के वीणा वादन करते समय तारों के कम्पन से निकली मधुर ध्वनि बालक रमन को अपनी ओर खीचती। वह सोचते कि इन तारों को छेड़ने से एक लय, प्रवाह, आरोह-अवरोह में मनमोहक ध्वनि कैसे उत्पन्न हो सकती है। यही जिज्ञासा बाद में उनके ध्वनि सम्बंधी शोधों का आधार भी बनी। चार वर्ष की उम्र में ही पिता का तबादला विशाखापट्टनम हो जाने से रमन की प्रारंभिक शिक्षा भी वहीं शुरु हुई।
यहां घर के सामने लहराता सागर का नीला जल रमन का ध्यान आकर्षित करता। बालमन सोचता कि घर और सागर के जल में यह अन्तर कैसे। मकान की खिड़की से वह सागर की लहरों को अठखेलियां करते देखते रहते मानो जल के नीलेपन के रहस्य का कोई तोड़ खोज रहे हों। 12 वर्ष की आयु में ही आपने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर अपनी विशेष प्रतिभा का परिचय दे दिया था। तभी पिता उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजना चाह रहे थे। लेकिन चिकित्सक के यह कहने पर कि इंगलैंड का कठोर वातावरण रमन के स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं रहेगा, तब रमन ने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज में 1903 में बी.ए. प्रवेश लिया और विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में प्रथम आकर गौरव अर्जित किया। 1907 में एम.ए. गणित प्रथम श्रेणी में विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण किया। कालेज की कक्षाओं में रमन कम दिखाई देते बल्कि विज्ञान प्रयोगशाला में ही समय व्यतीत करते। पर प्राध्यापकों का भी सहयोग रहता और वे नियमित कक्षा आने के नियम से ढील दिए रहते क्योंकि वे सभी जानते थे कि रमन कुछ विशेष करने वाला है और फिर परीक्षाओं में भी हमेशा आशा से अधिक अंक प्राप्त किया।
परास्नातक करते समय ही 1906 में ‘प्रकश विवर्तन’ विषय पर शोध पत्र लिखा जो लंदन से प्रकाशित विश्व प्रसिद्ध पत्रिका ‘फिलसोफिकल मैगजीन’ में छपा और चर्चित हुआ। तत्कालीन भारत में विज्ञान के शोधकेंद्रों का अभाव था। तो 1907 में ही आपने भारत सरकार के वित विभाग की परीक्षा में बैठे और प्रथम आये। तब असिस्टेंट एकाउंटेंट जनरल के रूप में कलकत्ता में कार्यभर ग्रहण किया। ऐश्वर्य का जीवन जीने हेतु वहां पद, प्रतिष्ठा, उच्च वेतन सभी कुछ था पर रमन का मन तो विज्ञान की दुनिया में ही रमा था। फलतः एक दिन कार्यालय से घर आते समय 1876 में स्थापित ‘इंडियन एसोसिएशन फार दि कल्टीवेशन आॅफ साइंस’ का बोर्ड देख वहां पहुंच गयेे और अपने प्रयोग करने हेतु अनुमति प्राप्त कर ली। तो नौकरी के साथ-साथ सुबह-शाम चार-चार घंटे ‘ध्वनि में कम्पन एवं कार्य’ के क्षेत्र में प्रयोग हेतु प्रयोगशाला में बीतने लगेे। वह स्कूली बच्चों को प्रयोगशाला लाकर विज्ञान के विभिन्न प्रयोग करके दिखाते। लेकिन इसी बीच रंगून और नागपुर स्थानान्तरण हो जाने से प्रयोग प्रक्रिया रुक गई। लेकिन जल्दी ही आप पुनः कलकत्ता आ गये और बाधित प्रयोग फिर नई ऊर्जा के साथ प्रारम्भ हो गये। तो यह संस्थान 1907 से 1933 तक किये गये आपके प्रयोग और समर्पण का साक्षी रहा।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति आशुतोष मुखर्जी के कहने पर 1917 में आपने नौकरी से त्यागपत्र देकर भौतिकी का प्राध्यापक बनना स्वीकार कर लिया। 1921 में विश्वविद्यालयों के कांग्रेस में कलकत्ता विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करने हेतु ऑक्सफोर्ड जाना हुआ। लौटते समय भूमध्य सागर के जल का नीलापन देखकर आप आश्चर्यचकित रह गए। विचार किया कि समुद्र के जल में नीलापन किस कारण से है। उपकरण लेकर आप जहाज के डेक पर आ गये और घंटों सिन्धु जल का अवलोकन-निरीक्षण और प्रयोग करते रहे। इस दौरान पूर्व में विज्ञानवेत्ताओं द्वारा खोजे गये सिद्धांत और निष्कर्ष आंखों के सामने घूमते रहे कि जल का नीलापन समुद्र के अन्दर से प्रकट हों रहा है। पर आप उनसे सहमत नहीं हो पा रहे थे। तब रमन ने इस रहस्य की खोज करने का संकल्प लिया।।
भारत आकर आपने प्रयोगशाला में 1921 से 1927 तक शोध किया जिसकी परिणति ‘रमन प्रभाव’ के रूप में हुई। यह शोध ‘नेचर’ पत्रिका में सर्वप्रथम छपा था। ‘रमन प्रभाव’ प्रकाश का विभिन्न माध्यमों से गुजरने पर उसमें होने वाले भिन्न-भिन्न प्रकीर्णन के कारणों का अध्ययन है। 1924 में आपको राॅयल सोसायटी आॅफ लंदन का फैलो बनाया गया। 1927 में जर्मनी ने जर्मन भाषा में भौतिकशास्त्र का बीस खंडों एक विश्वकोश प्रकाशित किया। इसमें वाद्य यंत्रों से सम्बंधित आठवें खंड का लेखन रमन द्वारा किया गया। यह उल्लेखनीय है कि इस विश्वकोश को तैयार करने वाले आप एकमात्र गैरजर्मन व्यक्ति थे। उनके 2000 शोध पत्र विभिन्न अन्तरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुए। 1948 में आपने सेवानिवृत्ति के बाद बेंगलुरु में ‘रमन शोध संस्थान’ की स्थापना की।
भारत सरकार ने 1954 में रमन के योगदान और वैज्ञानिक उपलब्धियों का वंदन करते हुए ‘भारत रत्न’ पुरस्कार प्रदान किया। रूस ने 1957 में ‘लेनिन शंन्ति पुरस्कार’ भेंटकर सम्मानित किया। संचार मंत्रालय ने 20 पैसे का एक टिकट जारी कर आपकी स्मृति को अक्षुण्य बना दिया। अमेरिकन केमिकल सोसायटी ने 1998 में ‘रमन प्रभाव’ को अन्तरराष्ट्रीय विज्ञान के इतिहास की एक युगान्तकारी घटना के रूप में स्वीकार किया। रमन की यह खोज आज तमाम नवीन खोजों का आधार है। विश्व का यह महान भौतिकविद् 21 नवम्बर 1970 को अपनेे चाहनेवालों को अकेला छोड़ अंतिम यात्रा पर प्रस्थान कर गया। लेकिन जब तक दुनिया में भौतिकी का अध्ययन होता रहेगा तब तक ‘रमन प्रभाव’ अमर रहेगा और चन्द्रशेखर वेंकट रमन भी।
लेखक पर्यावरण, महिला, लोक संस्कृति, इतिहास एवं शिक्षा के मुद्दों पर दो दशक से शोध एवं काम कर रहे हैं।