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लाॅकडाउन: एक लेखक की व्यथा कथा

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प्रमोद दीक्षित ‘मलय’। देश में लाॅकडाउन है और मैं भी तमाम देशवासियों की तरह घर में रहने को मजबूर हूं। हालांकि लाॅकडाडन घोषित होते समय अन्दर से बहुत खुश था कि विद्यालय बंद हो जाने से इस अवधि में लेखन के शौक के चलते कुछ लिखने-पढ़ने का सार्थक काम हो जायेगा। और तदनुरूप योजना भी बना ली थी कि कम से कम तीन कहानी, चार-पांच लेख, एक दर्जन कवितएं और मन भर हाईकू तो रच ही डालूंगा। पेन, पैड, लैपटाप सब तैयार कर लिया था। अखबार कोरोना समाचार और चित्रों से भरे हैं।

रेहड़ी, ठेला और पटरी पर दो जून की रोटी तलाशने वाले छोटे-मोटे व्यापारी-कामगार रोजगार बंद होने से पेट की आग में झुलस रहे हैं। कल-कारखानों से भगाये गये मजदूर डे-नाईट वाॅकिंग करते हुए किसी तरह अपने गांव-घर पहुंचे तो प्रशासन ने उन्हें घरबदर कर स्कूलों में बने आइसोलेशन वार्ड में पटक दिया है। जहां दीवारों में अंकित सद्वाक्य ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेसु कदाचन’ का अर्थ समझते उनका समय बीत रहा है।

सोचा कि एक लेखक होने के नाते उनके दर्द को स्वर देना भी मेरा दायित्व है तो उन पर भी कुछ कालजयी लेखन कर डालूं। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। घर पर दो दिन तो आराम से कटे। समय से चाय नाश्ता, लंच-डिनर, रात को सोते समय केशर-शहद मिला दूध और साथ में एक चम्मच स्वर्णभस्म युक्त च्यवनप्रास भी। तो इतना सब खाने-पीने के बाद रचनाएं भी मक्खन की मानिन्द दिमाग में उतराने लगी थीं। पर हाय रे मुआ कोरोना, चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात, बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी, काम का न काज का दुश्मन अनाज का जैसे मुहावरे अब वास्तविक अर्थ के साथ साक्षात थे।

तीसरे दिन की सुबह से आज की सुबह है, मैं बस मुआ कोरोना को कोस रहा हूं। कोरोना मिल जाये तो बिना नमक, मिर्च-मसाले के कच्चा ही चबा जाऊं। आप पूछ रहे हैं हुआ क्या, अरे जनाब यह पूछिए कि क्या नहीं हुआ। तीसरे दिन की मधुर प्रात, चिड़ियों के कलरव और मलय बयार के झोंकों का आनन्द लेते हुए चादर ताने मैं एक प्रेम कथा का ड्राफ्ट मन ही मन बुन रहा था कि पत्नी का कारुणिक मन्द्र स्वर गूंजा, ‘मेरे बाबू, आज बदन दर्द हो रहा है, पांव भी भारी है, अपनी चाय बना लोगे क्या।’ ‘हां, ठीक है।

पर फिर से पांव भारी। पिछले ही साल तो बेटी प्रतीक्षा जन्मी है। इतनी जल्दी, पर तुूमने पहले कभी बताया नहीं। पर चलो ठीक है, अम्मा कब से पोते का मुंह देखने को तरस रही हंै।’ मैं खुशी मिश्रित आश्चर्यचकित था। ‘ऐसा वैसा कुछ नहीं है, लेखक महराज। बस, मन-तन बोझिल सा है।’ मैं किचेन में चाय बनाने लगा कि तभी एक आवाज कानों से टकरायी, ‘मेरे सोना, एक कप मेरे लिए भी बना देना। तुम्हारी चाय में तो जादू होता है।’ मैंने बाअदब उन्हें बिस्तर पर ही चाय और एक गिलास पानी देकर पूछा, ‘कोई और आज्ञा है महारानी।’ ‘क्या हर समय मजाक करते रहते हो। किसी के दुख-दर्द से तुम्हें तो कोई मतलब ही नहीं। अब देखो न, कितना काम बिखरा पड़ा है। काम वाली बाई भी नहीं आ रही है।’ ‘हां, तुम सही कह रही हो, एक ही चेहरा देख-देख कर मैं भी बोर गया हूं।’ मैंने दबे स्वर में मन की भड़ास निकाली। पर उसके कान तो चमगादड़ की तरह लो फ्रीक्वेंसी की ध्वनि तरंगें भी पकड़ लेते हैं।

वह सिंहनी सी दहाड़ी, मैं शुरू से ही तुम्हारे चाल चरित्तर जानती थी। मति मारी गई थी मेरी, भाग फूट गये थे जो तुम्हारी चिकनी चुपड़ी बातों में आकर घर से भाग कर तुमसे शादी की थी। पड़ोसी मि0 वर्मा कैसे अपनी पत्नी के साथ खुशी से रहते हैं। कुछ सीखो उनसे।’ ‘मिसेज वर्मा के साथ तो मैं भी खुशी-खुशी रह लूंगा।’ यह कहते हुए मैं कमरे बाहर निकलने वाला ही था कि पत्नी का कोमल स्वर हवा में तैरा, ‘कमर में मरहम लगा दो न, दर्द से उठा नहीं जा रहा।’ मरहम लगाकर एवं दैनिक जरूरी कामों से निबट कर मैं मेज पर बैठ गया हूं। चाय की तलब लगनें लगी है, हालांकि अभी तक मेरी चाय का कप और पकोड़े की प्लेट नहीं आई है और न ही किचन से ऐसे कोई संकेत मिल रहे हैं।

कई बार पत्नी की ओर मांगने के लिए संकेत करने का साहस बटोरा है पर उनकी मुख मुद्रा देखकर कछुए की भांति अपनी भावना को मन के अंदर समेट कर व्हाट्सएप पर मिसेज वर्मा द्वारा भेजे पनीर के पकोड़े खाते हुए चाय पी रहा हूं। इसी बीच पत्नी ने दूध का डिब्बा मेज पर जोर से रखते हुए दशानन के से कोमल मधुर स्वर में बोलीं कि पड़ोस की डेरी से दूध ले आऊं। हालांकि बाहर पुलिस का कड़ा पहरा है और बाहर निकलने वालों के डंडे खाने और मुर्गा बनने के कई फोटो और वीडियो देखकर मेरे कदम घर की लक्ष्मण रेखा को पार करने का दुस्साहस नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन मामा मरीच का अनुसरण कर डेरी की ओर बढ़ चला हूं। सौभाग्य से आज रास्ता खाली है और मैं सकुशल दूध लेकर घर में घुसा ही हूं की पत्नी की मधुर मुस्कान भरी मनुहार सुनकर विस्मित हुआ, ‘हाथ-मुंह धोकर बैठो। मैं नीम और सहजन के फूलों के पकोड़े और काॅफी लेकर आती हूं।

अपने को तीन चार बार चुटकी से काटा कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूं। और तभी झाड़ू-बाल्टी और पोंछा के साथ प्रकट होकर वह बोलीं कि नाश्ता आने तक कमरे और आंगन की मैं साफ-सफाई और पोंछा कर डालूं। मैं गमछे को सिर पर बांधकर झाड़ू लगाने में जुट गया हूं। कोना कोना, सोफा-दीवान के नीचे सभी जगह से जाले-धूल साफ करने के निर्देश लगातार आकाशवाणी के संगीत की तरह गूुज रहे हैं। मैं बाबा झामदेव का गोनायल डालकर पोंछा लगा रहा हूं। किचेन से आती हुई खुशबू और काफी की महक से मेरे काम में गति आ गई है और चेहरे पर खुशी की चमक। लेकिन यह खुशी पल भर बाद ही गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो गई। मैं देख रहा हूं कि बाथरूम में चादरें तकियों के कवर और कपड़े रखे जा रहे हैं। पकौड़े सामने आ गये हैं और मैं भूखे कुत्ते की तरह पकौड़ों पर टूट पड़ा हूं। नाश्ते के बाद बाथरूम में पड़े कपड़े धुल कर छत पर पहुंचा ही हूं कि तभी, ‘चांद नहीं निकला वहां। अब छत पर ही टहलते रहोगे कि नीचे भी आओगे। मैं तार पर कपड़े फैलाते हुए आसपास की छतों की ओर चांद निहारने की असफल कोशिश कर रहा हूं पर सभी छतों में तपते सूरज किसी न किसी काम में लगे हैं।

नीचेे उतर आंगन में बैठा ही हूं कि सामने थाली में चावल बीनने के लिए रखे हुए हैं और दाल की सीटी बज रही है। पूजा घर से घंटी की के साथ मिली ध्वनि का एक टुकड़ा मेरे कानों से टकराया कि दाल का कूकर उतारकर चावल चढ़ा दूं और पूजा होने के पहले भरवां करेला बना लूं। पूजा हो गई है और प्रसाद के लिए दाल, चावल, पापड़, अचार, चार फुलके, दही का खीरा वाला रायता और खीर सजा थाल रख आया हूं। अब वह शाम की चाय और रात के खाने का मीनू बताकर आराम करने ख्वाबगाह तशरीफ ले जा रही हैं। और इधर मेरी कमर दर्द से कमान हुई जा रही है, वह दर्द जो एक स्त्री हर दिन जीती है, जूझती है।

-लेखक पर्यावरण, महिला, लोक संस्कृति, इतिहास, भाष एवं शिक्षा के मुद्दों पर दो दशक से शोध एवं काम कर रहे हैं।

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