कुन्दन कुमार
मानवीय आवश्यकताओं में शिक्षा मनुष्य की सबसे अमूल्य आवश्यकता है; शिक्षा मनुष्य का ऐसा श्रृंगार है जो मनुष्य के आतंरिक सौन्दर्य को परिभाषित करती है। शिक्षा मनुष्य के समृद्ध,सुखद तथा सुगम जीवन का आधार है। सभ्य समाज का निर्माण शिक्षित समाज के माध्यम से ही संभव है। अत: समाज के सभी तबके को सुगम शिक्षा उपलब्ध हो सके इसके लिए सरकार समय समय पर नई शिक्षा नीति का निर्माण तथा उसका क्रियान्वयन करती रहती हैं।
भारत में शिक्षा नीति का इतिहास काफी पुराना है। प्राचीन काल में गुरुकुल की व्यवस्था थी। शिक्षा सभी के लिए उपलब्ध नहीं थी। समाज के संभ्रात वर्ग तथा राजा महाराजाओं के राजकुमारों को ही पढ़ने का अधिकार था। मध्यकाल में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही भारत में इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जानने वाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाते थे। बादशाहों और अन्य शासकों की व्यक्तिगत रुचि के अनुसार इस्लामी शिक्षा दी जाती थी। इस्लामी शासकों के संरक्षण में मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना होने लगी। मध्यकाल की शिक्षा नीति की सबसे बड़ी विशेषता छात्र और शिक्षकों के बीच आपसी संबंध प्रेम तथा सम्मान का था। ब्रिटिश काल में शिक्षा में मिशनरियों का प्रवेश हुआ। ब्रिटिश काल के महत्वापूर्ण शिक्षा दस्तावेजों में मैकाले का घोषणा पत्र 1835,वुड का घोषणा पत्र 1854,हण्टर आयोग 1882 सम्मिलित है।
अग्रेंजो ने भारत में ऐसी शिक्षा नीति का निर्माण किया;जिसने भारत की प्राचीनतम शिक्षा व्यवस्था और पुरातन ज्ञान विज्ञान को ध्वस्त कर दिया।अग्रेंजो की शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य अग्रेंजी शिक्षा का प्रचार प्रसार एवं ऐसी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करना था,जो भारत में वर्ण आधारित श्रम व्यवस्था एवं शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करें तथा अग्रेंजो के शासन संचालन में सहायक हो। यद्दपि मैकाले की शिक्षा व्यवस्था नें भारत की पुरातन शिक्षा व्यवस्था को ही नहीं वरन् भारत में जाति बंधन एवं उँच नीच के विभेद को भी कम किया। आजादी के बाद शिक्षा नीति की बागडोर भारतीय नीति निर्धारकों ने संभाल लिया। 1948-1949 में विश्वविद्यालयों में सुधार के लिए शिक्षाविद् डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति हुई। भारतीय विश्वविद्यालय आयोग की सिफारिशों को बड़ी तत्परता के साथ क्रियान्वित किया गया।
विश्वविद्यालय आयोग की अनुशंशा पर भारत में कई शहरों में नए विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। वर्ष 1952-1953 में माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया गया.माध्यमिक शिक्षा आयोग नें माध्यमिक शिक्षा की उन्नति के लिए अनेक सुझाव दिए। तत्पश्चात् 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग की अनुशंशाओं के आधार पर 1968 में एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें राष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध,चरित्रवान तथा कार्यकुशल युवक युवतियों को तैयार करने का लक्ष्य रखा गया।
मई 1986 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई.जो अब तक चल रही है। नई शिक्षा नीति की अनुशंशाओं के आधार पर 86वें संविधान संशोधन के द्वारा 6 वर्ष से 14 वर्ष के बच्चों के लिए निशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का उपबंध किया गया।शिक्षा के अधिकार को संवैधानिक अधिकार का मान्यता दे देने के बावजुद सबके लिए निशुल्क तथा गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध करा पाना सरकार के लिए टेढ़ी खीर बना रहा। सरकारी स्कूलों में अयोग्य शिक्षकों तथा संसाधनो की अनुपलब्धता की वजह से संभ्रात परिवार के बच्चें सरकारी स्कूल में पढ़ना नहीं चाहते। शिक्षा माफियाओं तथा कुकुरमुत्तों की तरह निजी स्कूल,इंजीनियरिंग कालेज तथा विश्वविद्यालय छात्रों तथा अभिभावकों के शोषण का एक माध्यम बन चुका है। दिल्ली,इलाहाबाद, कोटा तथा पटना कोचिंग संचालकों के लिए एक बाजार बन चुका है। कोचिंग संस्थान छात्रों से मनमानी फीस वसूलती है और छात्रों को मजबूरन फीस भरना पड़ता है। 1986 की शिक्षा नीतियों की खामियों को देखते हुए इसरो के पूर्व अध्यक्ष कस्तुरीरंगन की अध्यक्षता में नई शिक्षा नीति का मशविदा तैयार करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया था। कस्तुरीरंगन कमेटी ने सरकार के समक्ष अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत कर दिया है।
नई शिक्षा नीति के मशविदों के अनुसार,Bed का कोर्स 4 साल करने का सुझाव दिया गया है। इसके अलावे नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि बच्चों को कम से कम पाँचवी तक मातृभाषा में ही पढाना चाहिए। त्रिभाषा फार्मूला तथा निजी स्कूलो के मनमानी फीस बढाने पर लगाम लगाने की पेशकश नई शिक्षा नीति की मुख्य विशेषता है। बड़े बड़े शहरों में बड़े बड़े निजी स्कूल 200 फीसद तक फीस बढा़ देते हैं। नई शिक्षा नीति में अग्रेंजी की अनिवार्यता को कायम रखने की बात कही गई है। राष्ट्रीय स्तर पर एक राष्ट्रीय शिक्षा आयोग को स्थापित करने की बात भी नई शिक्षा नीति की विशेषता है। यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी के 70 सालों के बाद भी देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति नहीं बनाया।
नई शिक्षा नीति के मशविदे को लागू करना सरकार का काम है। प्रचंड बहुमत के बाद भी अगर सरकार नई शिक्षा नीति को लागू करा पाने में असर्मथ रहती है तो यह मोदी सरकार की इच्छा शक्ति की हार होगी।