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हे प्रकृति रक्षक ! दुनिया के रखवाले..!

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डॉ. के.एस. राणा
कुलपति, कुमाऊं विश्वविद्यालय
  • मक्का से वैटिकन तक, कोविड-19 ने साबित कर दिया है- कि इंसान पर संकट की घड़ी में भगवान कहाँ हैं ?
  • या ये विश्व व्यापी संकट ईश्वरीय प्रकोप है ?
  • मक्का में सबकुछ ठप है। पोप का ईश्वर से संवाद स्थगित है। पुजारी मंदिरों में प्रतिमाओं को मास्क लगा रहे हैं।
  • धर्म ने कोरोनावायरस से भयभीत इंसानों को असहाय छोड़ दिया है। क्यूँ ?

जब जब होई धर्म की हानि…
क्या कोई नया कृष्ण दुनिया में अवतरित होगा ?
जो गीतोपदेश के रूप में छाती ठोक कर कहेगा- “हे पार्थ मैं ही ईश्वर हूँ तू पाखंड छोड़ कर मेरी मान, मैं ही मानवीयता की रक्षा करूँगा।”

  • काबा का चक्कर लगाने के रिवाज ‘तवाफ़’ से लेकर खुद उमरा (तीर्थयात्रा) तक, मक्का में सबकुछ ठप है।
  • मदीना में पैगंबर मोहम्मद साब के दफनाए जाने के स्थल की तीर्थयात्रा भी रोक दी गई है।। संभव है, वार्षिक हज भी स्थगित कर दी जाए।अनेकों मस्जिदें जुमे की नमाज़ स्थगित कर चुकी हैं।
  • कुवैत में विशेष अज़ानों में लोगों से घर पर ही इबादत करने का आग्रह किया जा रहा है। मौलवी लोग लोगों को वायरस से बचाने के लिए मस्जिदों में जाकर अल्लाह से दुआ करने का दावा नहीं कर रहे।

ऐसा इसलिए है क्योंकि धर्म के ठेकेदारों को अच्छी तरह मालूम है कि अल्लाह हमें नोवेल कोरोनावायरस से बचाने नहीं आएंगे। कोई बचा सकता है तो वे हैं – वैज्ञानिक, जो टीके बनाने में, उपचार ढूंढने में व्यस्त हैं।

धर्म पर भरोसा करने वालों को इस घटनाक्रम से सर्वाधिक विस्मित होना चाहिए, उन्हें सबसे अधिक सवाल पूछने चाहिए। वे लोग जो कोई सवाल पूछे बिना झुंड बनाकर भेड़चाल की प्रवृति दिखाते हैं। ना उन्हें ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण चाहिए, ना ही तार्किकता और मुक्त चिंतन में उनका भरोसा है। क्या आज उन्हें ये बात नहीं कचोटती होगी कि जिन धार्मिक संस्थाओं को बीमारी के मद्देनज़र उनकी सहायता के लिए आगे आना चाहिए था, वे अपने दरवाज़े बंद कर चुके हैं? क्या धार्मिक संस्थाओं का असली मकसद आमलोगों की मदद करना नहीं है?

बहुतों के लिए भगवान संरक्षक के समान हैं, और सलामती के लिए वे उनकी सालों भर पूजा करते हैं। लेकिन जब मानवता संकट में होती है, तो आमतौर पर सबसे पहले मैदान छोड़ने वाले कौन हैं?

वैटिकन से लेकर मंदिरों तक, भगवान भी मैदान छोड़ रहे हैं
कोरोनावायरस कैथोलिकों के पवित्रतम तीर्थ वैटिकन में भी पाया जा चुका है। माना जाता रहा है कि पोप भगवान से संवाद कर सकते हैं। तो फिर वो इस समय ऐसा कर क्यों नहीं रहे? यहां तक कि वह दैव संपर्क से किसी चमत्कारी दवा की जानकारी तक ला पाने में असमर्थ हैं। इसके बजाय वायरस का प्रकोप फैलने के डर से वैटिकन की हालत खराब है और पोप जनता के सामने उपस्थित होने से भी बच रहे हैं। क्यूँ?

वैटिकन में अनेक ईसाई धार्मिक त्योहार मनाए जाते हैं। पर होली वीक, गुडफ्राइडे और ईस्टर समेत सारे भावी कार्यक्रम रद्द कर दिए गए हैं और धार्मिक सभाओं पर रोक लगा दी गई है। क्यूँ ?

हिंदू मंदिरों के पुजारी भी मास्क डाले घूम रहे हैं। इतना ही नहीं, कुछ मंदिरों में तो देवी-देवताओं के चेहरों पर भी मास्क लगा दिए गए हैं। हिंदू महासभा ने गोमूत्र पार्टी का आयोजन किया है क्योंकि उसे लगता है कि गोमूत्र का सेवन कोविड-19 से रक्षा कर सकता है। कुछ लोग शरीर पर गाय का गोबर पोत रहे हैं, और उससे नहा तक रहे हैं क्योंकि वे गोबर को वायरस का प्रतिरोधक मानते हैं।

धर्म और अंधविश्वास आमतौर पर एक-दूसरे के पूरक होते हैं। तारापीठ बंद है, वहां फूल, आशीर्वाद और चरणामृत लेने वालों की भीड़ नहीं है। तिरुपति और शिरडी साई बाबा के मंदिर भी पाबंदियों के घेरे में हैं। शाम की पूजा और आरती को बड़ी स्क्रीनों पर दिखाया जा रहा है।

क्या ये सब अविश्वसनीय नहीं है?
फिर भगवान कहां हैं? क्या वो अत्यधिक नाराज़ हैं? धार्मिक लोगों के मन में ये सवाल नहीं उठ रहा?

धार्मिक स्थलों का मतलब है?
क्या सरकारों को तमाम धार्मिक संस्थाओं को दिए जाने वाले अनुदान और सब्सिडी पर रोक लगानी चाहिए। दुनिया भर के पोप, पुजारी, मौलवी और अन्य धार्मिक नेता लोगों की गाढ़ी कमाई। लेकिन जरूरत के समय वे उनके किसी काम का नहीं निकलते हैं। इसके बजाय वे लोगों को झूठ और अवैज्ञानिक तथ्यों की घुट्टी पिलाते हैं।

भला ऐसे संस्थान किस काम के हैं, सवाल गम्भीर है क्या?
धार्मिक स्थलों को संग्रहालयों, विज्ञान अकादमियों, प्रयोगशालाओं और कला विद्यालयों में बदल दिया जाना चाहिए ताकि उनका जनता की भलाई के काम में इस्तेमाल हो सके। प्रकृति ने बार-बार दिखलाया है और विज्ञान ने बार-बार साबित किया है कि कोई धर्म एक परिकथा मात्र है। हालांकि बहुत से लोग, विशेष रूप से दुनिया के अधिक विकसित हिस्सों में, खुद को धर्म के चंगुल से निकालने में कामयाब रहे हैं, पर जहां कहीं भी गरीबी है, सामाजिक असमानताएं हैं अंतर विरोध और बर्बरता है, वहां भगवान और पूजा-पाठ पर अतिनिर्भरता देखी जा सकती है।

भगवान के लिए, विज्ञान को मानें
अपने विकासवाद के सिद्धांत के जरिए भगवान के अस्तित्व को चार्ल्स डार्विन द्वारा नकारे जाने के लगभग 160 साल बीत चुके हैं। मनुष्य किसी विधाता द्वारा निर्मित नहीं हैं, बल्कि उसका वानरों से विकास हुआ है। डार्विन से बहुत पहले 16वीं शताब्दी में ही गैलीलियो और उनके पूर्ववर्ती कॉपरनिकस ने अंतरिक्ष एवं ब्रह्मांड की बाइबिल में वर्णित धारणाओं को गलत साबित कर दिया था। इसके बावजूद, दुनिया में अधिकांश लोग परमात्मा को मानते रहे हैं। उनके अदृश्य भगवान अदृश्य ही बने हुए हैं, उनके अस्तित्व पर कोई सवाल नहीं।

अब जब कोरोनावायरस महामारी एक व्यक्ति से दूसरे में और एक देश से दूसरे में फैलता जा रहा है, अधिकांश धार्मिक सभाएं और समारोह स्थगित कर दिए गए हैं। अस्वस्थता और बीमारियों से सुरक्षा पाने के लिए आमतौर पर अपने आस-पास के मंदिरों, मस्जिदों, गिरजाघरों और अन्य पूजा स्थलों की शरण में जाते रहे लोगों के लिए इस समय अस्पतालों और क्वारेंटाइन केंद्रों के अलावा और कोई ठौर नहीं बचा है।

आज मनुष्यों की रक्षा अलौकिक शक्तियां नहीं बल्कि उन्हें डॉक्टर रूपी मनुष्य ही बचा रहे हैं। धार्मिक लोगों को भी इस समय एक टीके का इंतजार है।

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