प्रणव कुमार मुखर्जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर हो रही बहस के बीच यह याद रखा जाना आवश्यक है कि उन्होंने देश के राष्ट्रपति पद पर रहते हुए भारत के शत्रुओं की कमर तोड़ने में भी एक निर्णायक भूमिका अदा की थी । प्रणब कुमार मुखर्जी की हरी झंडी मिलने के बाद ही अफजल गुरु, अजमल कसाब और याकूब मेमन जैसे देश के दुश्मनों को फांसी संभव हुई। राष्ट्रपति के रूप में उनके कार्यकाल की अहम बात यह थी कि उन्होंने दया याचिकाओं को लेकर भरपूर सख्ती अपनाई। उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपतियों का इस लिहाज से प्रदर्शन याद करने लायक नहीं रहा। वे तो ऐसी फाइलों पर बैठे ही रहते थे।
बहरहाल, बात यह है कि प्रणव कुमार मुखर्जी के अवसान से देश ने एक ज्ञान के सागर को खो दिया है। वे अगर सियासत में न आते तो संवैधानिक मामलों के ख्यात विशेषज्ञ, इतिहासकार या प्रखर लेखक भी हो सकते थे। उनकी स्मरण शक्ति अदभुत थी। उन्हें पचास-साठ साल पुरानी घटनाएं तिथियों के साथ याद रहा करती थी। वे राजनीति की दुनिया में इतनी लंबी पारी खेलने के बाद भी बेदाग रहे। उन पर कभी किसी ने कोई हल्का आरोप लगाने की भी हिमाकत नहीं है। इन सब गुणों के कारण उन्हें सब आदर देते थे। उन्हें देश ने अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न भी दिया।
मुझे याद है कि मैं 6 रायसीना रोड पर अटल जी के आवास पर 1996 में प्रणव दा से मिला था। जब मैं 2014 में सांसद बना तब एयरपोर्ट के वीआईपी लाउन्जो में आने-जाने का अवसर मिला । एक बार मैं पटना का जहाज पकड़ने पहुंचा। प्रणव दा पहले से वहां विराजमान थे शायद वे कोलकता जाने की तैयारी में थे। मैं हिचककर उनसे नजर बचाकर दूर बैठने की कोशिश कर रहा था कि उन्होंने मेरा नाम लेकर पुकार लिया।
देश को मिले प्रणव दा जैसा राष्ट्रपति
देश चाहेगा कि उसे भविष्य़ में डा. राजेन्द्र प्रसाद, प्रणव कुमार मुखर्जी और एपीजे कलाम सरीखे राष्ट्रपति मिलते ही रहे। प्रणव दा जैसी शख्सियत के द्वारा राष्ट्रपति पद को सुशोभित करने से देश का सम्मान तो बढ़ेगा ही। माफ करें कि राष्ट्रपति पद की गरिमा को बट्टा लगना चालू हुआ राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के समय से। उन्होंने 25 और 26 जून की रात को आपातकाल के आदेश पर दस्तखत करके देश में आपातकाल लागू कर दिया था। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा जी की आवाज में संदेश सुना कि, “भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।”…लेकिन, सच तो इंदिरा की घोषणा से ठीक उलटा था। देश भर में हो रही गिरफ्तारियों के साथ आतंक का दौर पिछली रात से ही शुरू हो गया था।
फखरुद्दीन अली अहमद जैसे औसत इंसान को कांग्रेस ने राष्ट्रपति भवन भेजकर देश के साथ अन्याय ही किया। उसके बाद कांग्रेस ने वी.वी.गिरी, ज्ञानी जैल सिंह, आर. वेंकटरामण, प्रतिभा पाटिल जैसों को राष्ट्रपति भवन भेजती रही। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सबका कार्यकाल बेहद औसत रहा। ये सभी अच्छे इंसान थे, लेकिन, राष्ट्रपति पद की गरिमा के अनुकूल थे या नहीं इसपर तो इतिहास में बहस चलती ही रहेगी । पर देश को एपेजी अब्दुल कलाम के रूप में एक महान राष्ट्रपति मिला। वे मृत्यु के बाद भी अमर हो गए। देश का बच्चा-बच्चा उन्हें मिसाइल मैन भी कहकर पुकारता है।
विद्वता की थे प्रतिमूर्ति
प्रणव कुमार मुखर्जी का राष्ट्रपति पद का कार्यकाल निर्विवाद रूप से उत्तम रहा। सारा देश उनकी विद्वता का कायल रहा। प्रणव कुमार मुखर्जी धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान थे। वे प्रत्येक शारदीय नवरात्रि के समय अपने पैतृक गांव में माँ दुर्गा के पूजन के लिए जाते रहे हैं। जहाँ वे सभी धार्मिक अनुष्ठान अपने पारंपरिक पहनावे में ही सम्पन्न करते थे । उनकी धार्मिक आस्था को देश ने उनके द्वारा लिखित पुस्तक ‘The Coal।t।on Years’ में पढ़ा। जब उन्होंने काँची के पूजनीय ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी जयेंद्र सरस्वती जी की गिरफ्तारी के दौरान केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में प्रतिरोध दर्ज कराते हुए कहा था कि “क्या देश में धर्म निरपेक्षता का पैमाना सिर्फ हिन्दू संत-महात्माओं तक ही सीमित है? क्या किसी राज्य की पुलिस किसी मुस्लिम मौलवी को ईद के मौके पर गिरफ्तार करने की हिम्मत दिखा सकती है?”
काँची शंकराचार्य पूज्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी के जेल से वापस आने के बाद प्रणव दा ने राष्ट्रपति रहते हुए काँची मठ में तीन दिन का प्रवास किया।
गंगा की अविरलता पर अद्वितीय निर्णय
संभव है कि बहुत से लोगों का ज्ञात न हो कि प्रणव कुमार मुखर्जी ने गंगा की अविरलता पर अद्वितीय निर्णय लिया था। संतों से जो उन्होंने कहा, वह अपने आपमें उनकी आस्था का प्रमाण है। प्रणव कुमार मुखर्जी के सामने गंगा जी की अविरलता का विषय अगस्त 2010 में तब आया जब लोहारी-नागपाला बाँध के खिलाफ आमरण अनशन चल रहा था। उस समय वे इस विषय पर निर्णायक मंत्री समूह के अध्यक्ष थे। उनसे मिलने संतों का एक प्रतिनिधिमंडल 11 अगस्त 2010 को जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी माधवाश्रम जी एवं जगद्गुरू रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवाचार्य जी के नेतृत्व में उनके दिल्ली स्थित आवास पर पहुँचा था।
अगस्त का महीना होने के कारण भीषण बारिश हो रही थी जिससे दिल्ली के कई इलाकों में घुटने तक जलभराव हो गया था। जब संतो का प्रतिनिधिमंडल रात्रि में 10 बजे के उनके सरकारी आवास पहुँचा तो वह स्वयं भी नंगे पाँव लगभग घुटने तक पानी में हाथ में छाता लिए स्वागत के लिए बाहर खड़े थे। वे कंधे का सहारा देकर पूज्य शंकराचार्य स्वामी माधवाश्रम जी को अपने आवास के अंदर ले गये। उस प्रतिनिधिमंडल में गंगा महासभा के कार्यकारी अध्यक्ष श्री प्रेमस्वरूप पाठक जी, राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जीतेन्द्रानंद सरस्वती जी (उस समय आचार्य जीतेंद्र), प्रख्यात अर्थशास्त्री श्री भरत झुनझुनवाला, हरिद्वार से सतपाल ब्रह्मचारी जी, चेतनज्योति मठ के महंत स्वामी ऋषिश्वरानंद जी, श्री के एन गोविंदाचार्य जी थे।
जगद्गुरु जी ने प्रणब दा को बताया कि “हमने सुना है कि लोहारी-नागपाला बाँध पर अब तक लगभग 600 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। इसी वजह से सरकार बाँध रद्द नहीं करना चाहती है। क्या बाँध का महत्व गंगा जी की अविरलता से बढ़कर है? मैं आपको कहता हूँ कि अगर पैसे की वजह से गंगा जी को बाँधने का कार्य नहीं रुक सकता तो आप हम संतों को अपने यहां बंधक रख लीजिये। जब हिन्दू समाज बाँध का 600 करोड़ सरकार को चुका देगा तब आप हमें छोड़ दीजिएगा।” इस पर प्रणब दा भावुक हो गए और उन्होंने कहा “पूज्य संत मेरे दरवाजे पधारे, यह मेरे लिए सौभाग्य का विषय है। गंगाजी की अविरलता के लिए 600 करोड़ रुपये का मेरे लिए कोई मायने नहीं है। सरकार संतो की भावनाओं के अनुरूप ही निर्णय लेगी।” इस प्रकार प्रणब दादा के निर्णय ने गंगा जी के वक्षस्थल पर एक और घाव होने से बचा लिया था। तो कृतज्ञ देश तो याद रखेगा ही ऐसे महान प्रणव कुमार मुखर्जी को।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं)