आज विश्व नदियाँ दिवस है। नदियाँ जीवन है न केवल बहते शुद्द पानी का श्रोत हैं, सिंचाई का श्रोत हैं, पर्यावरण है बल्कि जीवन है और जीविका है। जिस शहर से नदी निकले वहाँ कोई प्यासा रहे कोई भूखा रहे यह केवल और केवल कुप्रबंधन है।
नदियाँ हरित क्रांति का साधन तो है ही उसके साथ-साथ जीविका का बड़ा साधन भी हैं। नदियों के किनारे से अधिक सुरम्य वातावरण कहीं नहीं मिल सकता। नदियों के किनारे जमीनों की कीमत सर्वाधिक होती है और कौन नहीं चाहेगा रिवर व्यू, बस नदियों का तट प्रबंधन हो। शहरों में सुरम्य हरित क्रांति हो, नदियों की गहराई-चौड़ाई सीमित हो, पानी हमेशा भरा रहे, लाखों लोगों के लिये रोजगार का साधन- स्टाल, नाव, मोटरबोट। जब मनुष्य के मन में स्वर्ग लोक की कल्पना आती है तो नदियाँ, झीलें, पहाड़ सभी आते हैं।
सनातन धर्म आध्यात्म में नदियों को माँ का दर्जा दिया गया क्योंकि माँ सबका पालन करती है सबको दूध पिलाती है। नदियों की पूजा माँ की तरह बतायी गयी है, काश हम इस पूजा के अर्थ और महत्व को समय से समझ पाते। समय से सब होगा इन्हीं अर्थों को समझना ही जीवन है और मनुष्य का विकास है।
कल्पना करें, कैलाश से लेकर ताजमहल तक यमुना का सुरम्य तट हो इस 20 किलो मीटर पर जो जीवन बस सकता है, हजारों लोगों के रोजगार का साधन, हर थोड़ी दूर पर खेल पार्क, वेण्डिंग ज़ोन, सड़कें हों उस पर नदी के दोनों ओर सुरम्य पर्यटक होटेल, पेड गेस्ट अपार्टमेंट। इस पर सरकार को पैसा लगाना नहीं होता बल्कि सरकार पैसा बना सकती है बस प्रबंधन सोच की आवश्यकता है।
मोदी जी ने साबरमती तट का विकास कर उदाहरण रखा है बनारस का भी कायाकल्प हो रहा है। चुनाव में इसे प्रचारित भी किया गया। गड़करी जी भी नदियों के बड़े विकास, नदियों को जल मार्ग की कल्पना रख रहे हैं। नदियों में जल रहे और बाढ़ का भी प्रबंधन हो इसके लिये देश की नदियों को जोड़ने की क़वायद अटल जी की सरकार से शुरू हुयी और इस सरकार की भी प्राथमिकता में है, अभी कोसों दूर दिखती है।
आगरा का नम्बर कब आयेगा यह भविष्य के गर्त में है लेकिन कहीं कुछ बात तो शुरू हुयी, सपने तो शुरू हुये हैं पूरे भी होंगे। हमारे जन्म में न सही आने वाली जेनरेशन देख सकती है। ऐसी आस तो रख ही सकते हैं, जेनरेशन जल्दी-जल्दी बदल रही है देखते-देखते 5G …
लेखक, चिंतक, विश्लेषक- पूरन डावर