खेल से आदमी स्ट्रगल करना और फाइट करना सीखता है। हारने और जीतने की प्रक्रिया में हमारी फाइट हमें यह सिखाती है कि हर हार के आगे एक जीत है। कुछ ऐसे ही जज्बात ए बयां किये कालेज के दिनों में अच्छे स्पोट्र्स प्लेयर रहे, नेशनल खेल चुके व 16 जून 1954 को जन्मे डॉ. अशोक शर्मा ने। चिकित्सा जगत का स्वयं को ध्रुव तारा साबित कर चुके डॉ. शर्मा आज अपने प्रोफेशन में भी साइंटिफिक पैथोलॉजी के जरिये नेशनल और इंटरनेशनल मानकों के अनुरूप अपना शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं। अपनी ईमानदारी से विश्वसनीयता की कसौटी पर साइंटिफिक पैथोलॉजी को एक ब्रांड के रूप में स्थापित कर चुके अशोक शर्मा की वाइफ डॉ. रजनी शर्मा गाइनोक्लॉजिस्ट हैं और बेटा सौरभ शर्मा न्यूरोसर्जन है और शहर में अपनी कार्यशैली से ख़ास पहचान बनाई है। डॉ अशोक शर्मा ने टीबीआई 9 के अजय शर्मा से बात करते हुए चिकित्सा जगत और अपनी निजी जिन्दगी से जुड़े कुछ पहलू साझा किये। पेश है उनसे हुई बातचीत के खास अंश…
सबसे पहले हम जानना चाहेंगे कि पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या रही, बचपन कैसा बीता?
मेरे परिवार में कोई भी डॉक्टर नहीं था। दादाजी और पिताजी दोनों ही वकील थे। माँ हाउस वाइफ थी। उन्होंने काफी अच्छी तरह हमारी परवरिश की और बचपन काफी अच्छा बीता।
आपने अपनी एजुकेशन कहाँ से कम्प्लीट की ?
मेरी प्राइमरी से ग्रेजुएशन तक सारी एजुकेशन सेंट जोन्स कालेज से ही हुई। मेडिकल की पढ़ाई के लिए 1973 मैने एंट्रेंस दिया और सलेक्ट हुआ। एस.एन. मेडिकल कालेज से पैथोलॉजी में एमडी कर मैंने अपनी मेडिकल की पढ़ाई कम्प्लीट की। ख़ास बात यह रही कि घर से महज एक किलोमीटर के दायरे में मेरी सारी पढ़ाई हो गई। डॉ. नवल किशोर, डॉ. एमपी मल्होत्रा, डॉ. व्यास, डॉ. लहरी, डॉ. वीडी शर्मा ये सभी उस वक्त एस.एन. मेडिकल कालेज में हमारे टीचर रहे। एस.एन. मेडिकल कालेज उस समय का सबसे पुराना मेडिकल कालेज था। इसकी इंटरनेशन लेवल पर रेपुटेशन थी। जिसमें हमें पढऩे का सौभाग्य मिला।
डॉक्टर बनने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली ?
मेरे बचपन के दिनों में जब माँ की तबियत खराब होती थी तो उनको डॉक्टर्स के पास जाना पड़ता था। पिताजी की शहर के कई बड़े डॉक्टर्स से काफी अच्छी दोस्ती थी। डॉ. नवल किशोर, डॉ. दयाल ये सभी लोग कई मौकों पर घर आते थे तो मैं महसूस करता था कि डॉक्टर प्रोफेशन काफी अच्छा और जीवन बचाने वाला है। मेरी माँ का भी सपना था कि मेरा बेटा डॉक्टर बने। इन्हीं बातों ने मुझे डॉक्टर बनने के लिए प्रेरित किया।
आपके पैथोलॉजी ब्रांच को चुनने के पीछे क्या सोच रही?
मेरा रुझान शुरू से डाइग्नोस्टिक फील्ड का बहुत अधिक था और आज इलाज में इसकी इम्पोर्टेंस बहुत अधिक है आज इलाज एविडेंस बेस्ड होता है। वल्र्ड लेवल पर हर जगह इलाज का यही तरीका है। इन्वेस्टीगेशन से डॉक्टर सीधे तौर पर बीमारी की सही वजह को जानकर उसका इलाज कर पाते हैं। इसी सोच से मैंने इस ब्रांच का चुनाव किया।
इस प्रोफेशन को अपनाने के लिए और क्या बातें हैं जो आपको ख़ास प्रभावित करने वाली लगीं?
इस प्रोफेशन में सिक्योरिटी और रेपुटेशन बहुत है। फाईनेन्सियल मजबूती के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा अन्य प्रोफेशन के मुकाबले इसमें कहीं अधिक थी, साथ ही लोगों का जीवन बचाने के मौके देने वाले इस प्रोफेशन से समाज के लिए कुछ सोशल करने का अवसर भी है। यही बातें हैं जो इस प्रोफेशन में ख़ास प्रभावित करती हैं।
आप कालेज के दिनों में अच्छे स्पोट्र्स प्लेयर रहे हैं खेल का व्यक्ति के जीवन में क्या महत्व है ?
खेल से आदमी स्ट्रगल करना और फाइट करना सीखता है। हारने और जीतने की प्रक्रिया में हमारी फाईट हमें यह सिखाती है कि हर हार के आगे एक जीत है। स्पोट्र्स से हमारा मेंटल लेवल भी इन्क्रेज होता है, जोकि हमें खेल के मैदान से हटकर जीवन के संघर्ष में उसका डटकर सामना करने की हिम्मत देता है।
साइंटिफिक पैथोलॉजी अन्य से किस प्रकार ख़ास है ?
देखिये, सबसे पहली बात यह एनवीएचएल लैव है जोकि अपने मानकों के अनुरूप चलती है। बात यह है कि हम क्रिटिकल को बहुत अधिक इम्पोर्टेंस देते हैं। हम सिर्फ अपनी ड्यूटी रिपोर्ट देने तक ही नहीं समझते अगर किसी पेसेंट्स की रिपोर्ट में कुछ क्रिटिकल नजर आता है तो हम तुरंत उसके डॉक्टर्स से बात भी करके उसको अलर्ट करते हैं।
आपके पेरेंट्स से मिली ऐसी कोई सीख जोकि आपको आपके प्रोफेशन में काम आ रही है?
पेरेंट्स से हमेशा एक ही बात सीखी कि पेसेंट्स सबसे अधिक इम्पोर्टेंट है। जब भी हम घर जाते थे तो पेरेंट्स हमेशा मरीजों के हालचाल पूछते। उनका यह स्वभाव हमें मरीजों के प्रति हमारी प्राथमिकता को और मजबूत करता था।
इस प्रोफेशन में आपका क्या लक्ष्य है?
कई बार जब वायरल चलता है तो काफी लोग बीमार हो जाते हैं। ऐसे में कई बार तो एक भीड़ सी लग जाती है, काफी स्ट्रेस हो जाता है। ऐसे में हम हमेशा इस बात को लेकर एहतियात बरतते हैं कि मरीज के अंदर किसी प्रकार का भय व्याप्त न हो। जब भी किसी मरीज का डाइग्नोस बने और कुछ क्रिटीकल हो तो हम इस बात कोशिश करते हैं कि मरीज के साथ सामान्य व्यवहार करें उसको ऐसा कुछ एहसास न होने दे कि कुछ एवनोर्मल है हमारा प्रयास रहता है उसको हिम्मत और सही दिशा दें।
मेडिकल प्रोफेशन में आप अपना आइडियल किसे मानते हैं?
डॉ. लहरी जी को में अपना आडियल मानता हूँ। कॉलेज में वे हमारे गुरु रहे, उन्होंने हमें पढ़ाया और डॉ. आसोपा जिनके व्यक्तिव ने मुझे सदैव प्रभावित किया है। उनकी आसोपा टेक्निक आज विदेशों तक में पढ़ाई जाती है। साथ ही पिताजी जिन्होंने मुझे अच्छी परवरिश दी और इस प्रोफेशन में आने की हिम्मत दी।
आपकी वाइफ व बेटा आप सभी समान प्रोफेशन में हैं क्या इससे आप ख़ास लाभ महसूस करते हैं?
हाँ, समान प्रोफेशन में होने से सिर्फ इतना है कि सभी एक दूसरे की व्यस्तता को समझते हैं। आज भी घर में वहीं माहौल है जो मेरे माँ और पिताजी के समय रहा है। आज भी हम सभी के लिए मरीज का स्वस्थ होना पहली प्राथमिकता में रहता है। हम आज भी एक-दुसरे से मरीजों की खैर खबर लेना नहीं भूलते।
साइंटिफिक पैथोलॉजी के विस्तार को लेकर आपका क्या लक्ष्य है?
जो भी टेस्ट आज बाहर जाते हैं वो बाहर न जाएँ यहीं हम लोगों को वो टैस्ट लगभग आधे मूल्य और कम से कम समय में एक दम प्रोपर रिपोर्ट दें। जोकि हिन्दुस्तान के किसी भी बड़े से बड़े अस्पताल में मान्य हो। जोकि मरीज के ट्रीटमेंट में सहायक सिद्ध हो। इसके लिए लगातार हमारा प्रयास जारी है। लैब को हम नए-नए इंस्ट्युमेंट्स और टेक्नोलॉजी से लगातार अपग्रेड कर रहे हैं।
लोग अपने स्वास्थ्य को लेकर कितने सजग हैं क्या कहना चाहेंगे ?
देखिये, मैं यह कहना चाहूँगा कि हम सारी चीजों का रिटर्न फ़ाइल करते हैं लेकिन अपनी बॉडी का रिटर्न कभी फाइल नहीं करते। एक तरह चाबुक से उसको लगातार चलाते रहते हैं। एक समय तक शरीर चलता है ये ठीक है लेकिन साल में एक बार उसके बारे में जानकारी लेना कि शरीर स्वस्थ है या नहीं यह बेहद जरूरी है। विदेशों में यह बात बेहद कॉमन है जोकि हमारे यहाँ नहीं है। मेडीक्लेम पॉलिसी लेना जरुरी है जोकि लोग नहीं लेते। हम अपनी गाडी का इंश्योरेंस कराते हैं लेकिन सबसे बहुमूल्य अपने शरीर के इंश्योरेंस पर ध्यान नहीं देते। यह सोच एक दम गलत है।
जब पेसेंट्स डॉक्टर के पास जाता है तो कई बार डॉक्टर्स कई सारे टेस्ट लिख देते हैं ये कहां तक उचित है?
हाँ, आजकल ये हो रहा है कि कई बार डॉक्टर्स विभिन्न प्रकार के टेस्ट लिख देते हैं। उनसे मेरा निवेदन यही है कि वे अपना क्लिनिकल सेन्स जरुर लगायें और इम्पोरेंट्स टेस्ट ही लिखें। अनावश्यक टेस्ट लिखने से बचें क्यों कि इनकी कॉस्ट होती है जिसका भार मरीज पर पड़ता है और हम लोगों पर भी काम का प्रेशर बढ़ता है। हाँ एक ख़ास बात यह भी ध्यान रखें कि इम्पोर्टेंट टेस्ट जरुर लिखें। आँख बंद करके ये न सोचें कि पेसेंट्स यूँ ही अंदाज से दवा देकर ठीक हो जायेगा।
अगर आवश्यक टेस्ट की बात करें तो ऐसे कौन से टेस्ट हैं जोकि साल में एक बार जरूरी हैं?
डाइविटीज, हाईपरटेंशन, कॉलस्ट्रोल, थाइराइड, एनिमियां, हिमोग्लोविन कम होना और स्टूल के एग्जामिनेशन पेट में बोम्स का नहीं होना ये सामान्य से टेस्ट हैं जोकि चार-पांच सौ रूपये में हो जाते हैं जिनको साल में एक बार हमें जरुर कराना चाहिए।
अगर कोई टेस्ट हम करा चुके हैं तो फिर से उस टेस्ट को कराने की आवश्यकता कितने समय बाद पड़ती है?
देखिये, यह बात ध्यान देने वाली है यदि हम कोई जाँच एक बार करा चुके हैं तो इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि अब हमको वो प्रॉब्लम लाइफ में फिर कभी नहीं होगी। जरूरी है कि साल में एक बार कुछ टेस्ट आप डॉक्टर्स की सलाह से अवश्य कराएं।
मेडिकल ट्रीटमेंट में काउंस्लिंग कितना महत्वपूर्ण है ?
आज हमारे देश में क्वालीफाइड डॉक्टर्स की कमी है। जिससे डॉक्टर्स पर काफी भीड़ रहती है। इसी कारण से डॉक्टर्स पेसेंट्स को प्रॉपर टाइम नहीं दे पाते और ऐसे में पेसेंट्स फील करता है कि डॉक्टर ने उसके साथ न्याय नहीं किया इसके लिए में डॉक्टर्स को यही कहूँगा कि भले ही थोड़ी अपनी फीस बढ़ा लें लेकिन मरीज को देखने में प्रॉपर टाइम दें। उसके स्वस्थ होने के लिए साइक्लोजिकली देखें तो काउंसलिंग बहुत महत्वपूर्ण है।
यूथ डॉक्टर्स को क्या मैसेज देना चाहेंगे?
अपने प्रोफेशन के प्रति पूरी ईमानदारी से काम करें। ध्यान रखें मरीज के लिए आवश्यक टेस्ट ही लिखें साथ ही उसको गाइड करें कि कुकुरमुत्तो की तरह खुल गई लैब जिनमें न क्वालिटी है न कंट्रोल है न कोई मानक है सिर्फ सस्ते की बजह लोगों को आकर्षित करती है उनसे जांच न कराएँ। क्योंकि रिपोर्ट एक कागज के टुकड़े पर मरीज को मिलती है अगर रिपोर्ट में कभी गलत डाइग्नोस बन गया और उसके आधार पर मरीज को ट्रीटमेंट मिला तो यह उसके लिए जानलेवा भी हो सकता है।
मेडिकल साइंस में लगातार नए इनोवेशन हो रहे हैं वर्तमान में हमने क्या ख़ास प्रगति की है?
देखिये, पहले बहुत सारी बीमारियों के बारे में जांच की व्यवस्था न होने की वजह से अर्ली स्टेज पर उसकी जानकारी हमको नहीं हो पाती थी। लेकिन आज कई प्रकार के रोगों की जाँच की व्यवस्था है जैसा कि हम आज देख रहे हैं लोग कहते है कि कैंसर के मरीज बढ़ रहे हैं लेकिन यह सोच गलत है। कैंसर के मरीज पहले भी थे आज भी हैं और आगे भी रहेंगे। बस आज फर्क सिर्फ यह है कि डाइग्नोस्टिक टूल्स काफी बढ़ गये हैं जोकि काफी फास्ट हैं एक टेस्ट से महज 5 मिनट में हम टेस्ट कर लेते हैं। जिससे अर्ली स्टेज पर हमें पता चल जाता है और जिससे समय रहते हम इलाज कर रहे हैं। इस प्रकार के कई एडवांस टेस्ट विभिन्न बीमारियों को डाइग्नोस करने के लिए विकसित हो चुके हैं जो आज शत-प्रतिशत कारगर हैं।