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प्राथमिक शिक्षा में विज्ञान शिक्षण की चुनौती भरी राह

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विज्ञान का अध्ययन बच्चों को तर्कशील एवं विवेकवान बनाता है। वे अवलोकन, प्रेक्षण, परिकल्पना, प्रयोग, निरीक्षण एवं निष्कर्ष के सोपानों से गुजरकर किसी तथ्य का अन्वेषण करते हुए एक सैद्धान्तिक फलक की रचना करते हैं जिसमें सच की इबारत लिखी होती है। फलतः बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टि एवं सोच विकसित होती है और वह किसी घटना के निहितार्थ को विज्ञान की कसौटी पर कस कर ही आगे बढ़ते हैं न कि आंख मूंद स्वीकार कर अंधविश्वास के गहन अंधेरे पथ पर फिसलतेे हैं। अवैज्ञानिक सोच का ही परिणाम है कि कभी गणेश मूर्तियां दूध पीने लगती है तो कभी क्रास से रक्त की धारा फूट बहने लगती है। आस्था, कर्मकाण्ड या अंधविश्वास का रास्ता विज्ञान के प्रासाद के द्वार पर आकर ठहर जाता है।

विज्ञान के उपवन में अंदर वही प्रवेश कर सकता है जिसकी चेतना विज्ञानमय हो और दृष्टि एवं सोच दर्पण की मानिंद निर्मल। पर दुर्भाग्य से देश में ऐसा है नहीं। उपग्रह प्रक्षेपण के पूर्व विध्नहरण के लिए वैज्ञानिकों द्वारा किये जाने वाले हवन-पूजन के दृश्य उनके स्वयं के प्रयोग के विश्वास प्रति सवाल खड़ा करते हैं। यदि विज्ञान के शिक्षक बिल्ली के रास्ता काट जाने पर अपनी यात्रा स्थगित कर दें, सिर पर कौवा बैठ जाने को मृत्यु की सूचना समझ लें, रास्ते पर पानी से भरी बाल्टी और बछड़े को दूध पिलाती गाय मिलना शुभ और सफलता की गारंटी मान लिया जाये तो सोचना पडेगा कि वह विद्यार्थियों को कैसा विज्ञान बोध करा रहे होंगे।

उल्लेखनीय है कि बच्चों में इसका बीजवपन समाज एवं घर-परिवार द्वारा पहले ही कर दिया गया होता है और हमारी प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र उसके निर्मूलन की बजाय खाद-पानी दे पोषण का काम करते हैं। कालेज तक आते आते उसके अन्तर्मन में अंधविश्वास और ठकोसलों की जड़ें इतनी गहरी और पुष्ट हो जाती हैं कि उन्हें उखाड़ फेंकना असम्भव सा हो जाता है। रही सही कसर शिक्षकों का अतार्किक अवैज्ञानिक आचरण पूरी कर देता है।

आजादी के सत्तर सालों के बाद भी हम देश में एक वैज्ञानिक वातावरण क्यों नहीं बना पाये। क्यों हमने अपनी प्राथमिक शिक्षा को विज्ञान का दृढ़ आधार नहीं दे सके। क्यों किसी भी प्राथमिक स्कूल में विज्ञान का कोई छोटा-सा भी उपकरण बच्चों के हाथ में नहीं पहुंच पा रहा। क्यों विज्ञान को किताबों से लिखाया और रटाया जाता रहेगा। प्रयोग के लिए जगह और अवसर कब-कहां मिलेगा। क्यों विज्ञान के शोधों में हम वैश्विक स्तर पर कहीं दिखाई नहीं देतें। कब तक हम विश्वगुरु होने का थोथा गान गाते फिरते रहेंगे। उत्तर कौन देगा, सर्वत्र मौन पसरा है। जाति, धर्म एवं भाषा के नाम पर तो आये दिन आंदोलन होते हैं पर प्राथमिक विद्यालयों में वैज्ञानिक उपकरणों एवं प्रयोगशालाओं की व्यवस्था के लिए क्यों नहीं कोई आंदोलन होता। प्राथमिक विद्यालयों से उभर रहे दृश्य निराश करतेे हैं क्योंकि उनमें विज्ञानमय जीवन की धड़कन सुनाई नहीं देती बल्कि अंधविश्वास की जड़ता का कर्कश स्वर गूंजता है।

हमारे स्कूलों में सभी विषयों को एक ढर्रे या सांचे पर ही पढ़ाया जा रहा है। मेरा मानना है कि हर विषय का अपना एक स्वभाव और प्रकृति होती है और उसे उसी अनुरूप पढ़ाया जाना चाहिए। एक शिक्षक भाषा और विज्ञान को या गणित और सामाजिक विषय को एक तौर-तरीके से नहीं पढ़ा सकता पर दुर्भाग्य से हमारे स्कूलों में यही हो रहा है। दूसरी बात, बच्चों में विज्ञान शिक्षा के प्रति एक अज्ञात भय, कि विज्ञान बहुत कठिन विषय होता है, भर दिया गया है जो नितांत गलत और अव्यावहारिक है जोकि बच्चों में विज्ञान शिक्षा के प्रति अरुचि और अलगाव पैदा करता है। कोई विषय कठिन या सरल नहीं होता, यह शिक्षक की दृष्टि ही है जो उसे कठिन और सरल के रूप में बच्चों के सम्मुख प्रस्तुत करती है। वहीं शिक्षकों का रुदन रहता है कि विज्ञान शिक्षण के लिए आवश्यक संसाधन नहीं हैं। प्रयोगशालाएं नहीं हैं।

मुझे लगता है कि यदि सरकारें प्रत्येक वर्ष थोड़ी ही सही पर निश्चित धनराशि मुहैया करा मूलभूत सुविधाएं जुटाये और शिक्षक पाठों के आधार पर अधिकांश शिक्षण अधिगम सामग्री बच्चों के परिवेश से एवं बच्चों के सहयोग से जुटाते हुए ‘कबाड़ से जुगाड़’ सूत्र को थाम आगे बढ़ें तो बच्चों में विज्ञान के प्रति न केवल रुचि जाग्रत होगी बल्कि उनमें यह विज्ञान बोध भी उत्पन्न होगा कि विज्ञान उनके आसपास बिखरा हुआ है, उनके जीवन से, घर-परिवार-परिवेश से जुड़ा हुआ है। इससे बच्चों में आत्मविश्वास तो पैदा ही होगा साथ ही उनमें चीजों को अवलोकन-निरीक्षण करने, तुलना एवं कल्पना करने, तर्क करने, निष्कर्ष निकालने की क्षमता का विकास होगा और विज्ञान उन्हें सरल, सुबोध एवं रुचिकर लगने लगेगा।

हालांकि कुछ स्वप्रेरित शिक्षकों ने निजी पहल से अपने स्कूलों में छोटी प्रयोगशालाएं बनाई हैं, पर वह समाधान नहीं है। विज्ञान शिक्षा एवं शिक्षण के तरीकों, विज्ञान विषय के प्रति शिक्षकों की मानसिकता, शिक्षण की चुनौतियों और विज्ञान शिक्षण को रुचिपूर्ण बनाने के क्रियाकलापों पर एन0सी0एफ0-2005 का स्पष्ट मत है कि विज्ञान को बच्चों के परिवेशीय ज्ञान और समझ से जोड़कर पढ़ाया जाये। पर ऐसा होता कहीं दिखाई नहीं देता। शिक्षक द्वारा ब्लैकबोर्ड पर लिखे गये प्रश्नोत्तर बच्चे काॅपियों में अच्छी तरह से याद करने के शिक्षकीय निर्देश के साथ चुपचाप उतार रहे हैं। बस, किताब में जो छपा है उसे हूबहू ब्लैकबोर्ड पर अंकित कर रटवा देना ही विज्ञान शिक्षण हों गया है। यह पूरी प्रक्रिया अवैज्ञानिक, नीरस, उबाऊ और बच्चों की सोचने-समझने की शक्ति को कुंद करने वाली है।

आखिर, शिक्षक कब समझेंगे कि चुप रहना अनुशासन नही, डर एवं भय है जो सीखने में बाधक है। शिक्षक रटवाने की बजाय बच्चों को उनके परिवेशीय ज्ञान से जोड़ते हुए चर्चा कर समझ विकसित करते हुए अधिकाधिक प्रश्न पूछने और अभिव्यक्ति के सहज अवसर कब उपलब्ध करायेंगे। शिक्षक के रूप में बच्चों में अभिव्यक्ति की खुशी की खिलखिलाहट और समझ के आत्मविश्वास को पनपते हुए महसूस करना होगा। उन्हें खोजने और नया रचने-गढ़ने के लिए प्रेरित करना होगा और इसके लिए जरूरी शर्त है कि हमें उन पर विश्वास करना सीखना होगा। उपकरणों से खेलने की निर्भय आजादी देनी होगी।

इन्हीं रास्तों से बाल वैज्ञानिक प्रतिभाएं निकल कर विज्ञान के फलक को रोशन करेंगी। पर दुर्भाग्य से विद्यालयों में ऐसा नहीं हो रहा है। आने वाली हर सुबह डराती है क्योंकि शिक्षक के हाथ में फिर वही छड़ी होगी, ब्लैकबोर्ड में प्रश्नोत्तर होंगे, और होगा रटने का दबाव। प्रश्न पूछने पर प्रोत्साहन नहीं बल्कि हताशा और झिड़की होगी। कक्षा में अभिव्यक्ति की खुशी की खिलखिलाहट और समझ के आत्मविश्वास की जगह होगी चुप्पी और उस चुप्पी में दम तोड़ती बाल वैज्ञानिक प्रतिभाएं।

लेखक पर्यावरण, महिला, लोक संस्कृति, इतिहास एवं शिक्षा के मुद्दों पर दो दशक से शोध एवं काम कर रहे हैं।

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