विज्ञान के दम पर विकास की कीमत वैसे तो मानव वायु और जल जैसे जीवनदायिनी एवं अमृतमयी प्राकृतिक संसाधनों के दूषित होने के रूप में चुका ही रहा था किंतु यही विज्ञान उसे कोरोना नामक महामारी भी भेंट स्वरूप देगा इसकी तो उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी। अब जब मानव प्रयोगशाला का यह जानलेवा उपहार उस पर थोपा जा ही चुका है तो निसंदेह उसे प्रकृति के सरंक्षण और उसके करीब रहने का महत्व समझ आ गया होगा। लेकिन वर्तमान में इससे अधिक महत्वपूर्ण विषय है कोरोना महामारी पर मानव जाति की विजय। आज की वस्तुस्थिति तो यह है कि लगभग सम्पूर्ण विश्व ही कोविड 19 के समक्ष घुटने टेके खड़ा है। ना इसका कोई सफल इलाज मिल पाया है और ना ही कोई वैक्सीन। दावे तो कई देशों की ओर से आए लेकिन ठोस नतीजों का अभी भी इंतजार है, उम्मीद अभी भी बरकरार है। अपेक्षा है कि विश्व के किसी न किसी देश के वैज्ञानिकों शीघ्र ही दुनिया को इस महामारी पर अपनी विजय की सूचना देंगे।
वैसे तो इसके इलाज के लिए कई प्रयोग हुए। हाईड्रोक्लोरोक्विन अकेले या फिर स्वाइन फ्लू मलेरिया और एड्स तीनों बीमारियों में इस्तेमाल की जाने वाली दवाओं का कॉम्बिनेशन, प्लाज्मा थेरेपी जैसे अनेक असफल प्रयोग हुए। कोरोना के शुरुआत में इससे बचाव ही इसका एकमात्र इलाज बताया गया और विश्व के हर देश ने अपने यहाँ लॉक डाउन कर लिया। लेकिन जीवन रूकने नहीं चलने का नाम है तो लॉक डाउन में विश्व कब तक रहता। वैसे भी लॉक डाउन से कोरोना की रफ्तार कम ही हुई थी, थमी नहीं थी और लॉक डाउन के अपने नुकसान थे जो गिरती अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी, असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के आय के स्रोत बन्द हो जाने जैसे तमाम व्यवहारिक समस्याओं के रूप में सामने आने लगे। अब सरकारों के पास लॉक डाउन खोलने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। जीवन चलाने के लिए जीवन को ही दांव पर लगा दिया गया। क्योंकि डब्ल्यू एच ओ ने आशंका जाहिर की है कि शायद कोरोना का इलाज या उसकी वैक्सीन कभी नहीं आ पाए इसलिए हमें कोरोना के साथ जीना सीखना होगा। साथ ही डब्ल्यू एच ओ ने भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देशों को हर्ड इम्युनिटी यानी सामूहिक रोगप्रतिरोधक क्षमता के सिद्धांत को अपनाने की सलाह दी। जिसका आधार यह है कि भारत जैसे देश की अधिकतर जनसंख्या युवा है जिसकी रोगप्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है। इसलिए जब बड़ी आबादी में कोरोना से संक्रमण होगा तो उसमें वायरस के प्रति रोगप्रतिरोधक क्षमता का विकास होगा।
दरअसल इससे पहले 1918 में भी स्पेनिश फ्लू नाम की जानलेवा महामारी विश्व में फैली थी जो लगभग 15 महीने तक रही थी और इसने विश्व की एक तिहाई जनसंख्या को अपनी चपेट में लिया था और इसके कारण लगभग 100 मिलियन लोगों की मौत हुई थी। तब भी इसका कोई इलाज नहीं मिल पाया था। लेकिन डेढ़ साल में यह अपने आप ही खत्म हो गई क्योंकि जो इससे संक्रमित हुए वे या तो मृत्यु को प्राप्त हुए या उनके शरीर में इसके प्रति रोगप्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हो गई।
लेकिन हर्ड इम्युनिटी की बात करते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस सिद्धांत का मूल स्वस्थ शरीर पर टिका होता है जबकि आज की सच्चाई यह है कि भारत समेत विश्व के अधिकांश देशों के युवा आज आधुनिक जीवनशैली जनित रोगों की चपेट में हैं कम उम्र में मधुमह, उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों से ग्रस्त हैं फास्टफूड, सिगरेट तम्बाकू शराब और ड्रग्स के सेवन से उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता नगण्य है इसलिए भारत में यह सिद्धांत कितना सफल होगा यह तो वक्त ही बताएगा।साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना के शुरुआत में ब्रिटेन ने भी हर्ड इम्युनिटी का सिद्धांत ही अपनाया था लेकिन अपने यहाँ बढ़ते संक्रमण और मौत के बढ़ते आंकड़ों ने दो सप्ताह से भी कम समय में उसे लॉक डाउन करने के लिए मजबूर कर दिया था।
इसलिए अब जब यह बात सामने आने लगी है कि कोरोना वायरस एक प्राकृतिक वायरस ना होकर मानव निर्मित वायरस है, तो हमें भी अपनी पुरानी और पारंपरिक सोच से आगे बढ़ कर सोचना होगा। वैसे तो विश्व भर में इसका इलाज खोजने के लिए विभिन प्रयोग चल रहे हैं लेकिन यह कार्य इतना आसान नहीं है क्योंकि आज तक सर्दी जुखाम जैसे साधारण से प्राकृतिक वायरल इंफेक्शन का भी कोई इलाज नहीं खोज जा सका है। वह स्वतः ही तीन से चार दिन में ठीक होता है केवल इसके लक्षण कम करने के लिए दर्द निवारक गोली और रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए कोई मल्टीविटामिन दिया जाता है। लेकिन वहीं स्माल पॉक्स, मीसेल्स, चिकनपॉक्स, जैसी वायरल बीमारियों की वैक्सीन बना ली गयी है। वैक्सीन भी रोगप्रतिरोधक क्षमता के सिद्धांत पर ही काम करती है जिसमें बीमारी के कुछ कमजोर कीटाणु स्वस्थ मानव शरीर में पहुंचाए जाते हैं। इसलिए वैक्सीनेशन के बाद बुखार आना स्वाभाविक लक्षण माना जाता है और वैक्सीन द्वारा मानव शरीर में पहुँचाई गई कीटाणुओं की अल्प मात्रा के खिलाफ लड़ कर शरीर उस बीमारी से लड़ने की क्षमता हासिल कर लेता है।
लेकिन कोरोना वायरस साधारण वायरस नहीं है और ना ही प्राकृतिक है ईसलिए ये साधारण दवाएं और सिद्धांत इसके इलाज में कारगर सिद्ध होंगे इसमें संदेह है।
जिस प्रकार लोहा ही लोहे को काटता है और जहर ही जहर को मारता है, कृत्रिम कोरोना वायरस का इलाज एक दूसरा कृत्रिम वायरस ही हो सकता है। जैसे कोरोना वायरस को लैब में तैयार किया गया है, ठीक वैसे ही एक ऐसा वायरस लैब में तैयार किया जाए जो कोरोना वायरस का तोड़ हो, जो उसे नष्ट कर दे। जी हाँ ये संभव है। काफी समय से मानव शरीर के हित में उपयोग में लाने के लिए वायरस की जेनेटिक इंजीनियरिंग की जा रही है। जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ही कई पौधों के ऐसे बीज आज निर्मित किए जा चुके हैं जो पैदावार भी बढ़ाते हैं और जिनकी प्रतिरोधात्मक क्षमता इतनी अच्छी होती है कि वे संक्रमित नहीं होते। ऐसी फसल को जी एम फसल कहा जाता है। इसी तकनीक से वैक्सीन भी बनाई जा चुकी है। इस विधि का प्रयोग करके जो वैक्सीन तैयार की जाती है उसे रिकॉम्बीनेन्ट वैक्सीन कहते हैं। इस प्रकार जो पहली वैक्सीन तैयार की गई थी वो हेपेटाइटिस बी के लिए थी जिसे 1986 में मंजूर किया गया था।
दरअसल वायरस और बैक्टीरिया प्रजाति को अभी तक अधिकतर बीमारी फैलने और मानव शरीर पर आक्रमण करने के लिए ही जाना जाता रहा है। पर सभी वायरस और बैक्टीरिया ऐसे नहीं होते। कुछ वायरस और बैक्टीरिया तो मानव के मित्र होते हैं और सैकड़ों की संख्या में मानव शरीर में मौजूद रहते हैं। और कुछ वायरस तो ऐसे होते हैं तो बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया को नष्ट करते हैं इन्हें बैक्टेरियोफेज के नाम से जाना जाता है।
इसी प्रकार वायरस के द्वारा कैंसर का इलाज खोजने की दिशा में भी वैज्ञानिकों ने उत्साहवर्धक नतीजे प्राप्त किए हैं इसे जीन थेरेपी कहा जाता है जिसके द्वारा लाइलाज कहे जाने वाले कई अनुवांशिक रोगों का भी इलाज खोजा जा रहा है। वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस के स्ट्रक्चर यानी उसके ढांचे का पता लगा लिया है। अब उन्हें ऐसा वायरस जो ह्यूमन फ्रेंडली यानी मानव के शरीर के अनुकूल हो उसमें जेनेटिक इंजीनियरिंग की सहायता से ऐसे गुण विकसित करने होंगे जो मानव शरीर को नुकसान पहुंचाए बिना शरीर में मौजूद कोरोना वायरस के सम्पर्क में आते ही उसे नष्ट कर दे।
समस्या का हल ढूंढने के लिए उसकी जड़ तक पहुंचना पड़ता है, वो जहाँ से शुरू होती है, उसका हल वहीं कहीं उसके आस पास ही होता है। इसलिए कोरोना नामक प्रश्न जिसकी शुरुआत एक मानव निर्मित वायरस से हुई उसका उत्तर एक मानव निर्मित ह्यूमन फ्रेंडली वायरस ही हो सकता है।जब तलवार का निर्माण किया जा सकता है तो ढाल भी अवश्य ही बनाई जा सकती है आवश्यकता है दृढ़ इच्छाशक्ति और सब्र की।
डॉ नीलम महेंद्र (लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार है)