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राजनीति में नकारात्मकता और जातीय उन्माद: एक चिंताजनक प्रवृत्ति

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  • पूरन डावर, चिंतक एवं विश्लेषक

देश की राजनीति आजकल नकारात्मक मुद्दों पर अधिक केंद्रित हो गई है। प्रायः सभी दलों के नेताओं की ओर से ऐसे वक्तव्य सामने आते हैं जिनसे राजनीति गरमा जाती है। राणा सांगा पर किसी सिरफिरे द्वारा दिया गया दुर्भाग्यपूर्ण बयान राणा सांगा की महानता या वीरता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता। रोष स्वाभाविक है, लेकिन सत्तारूढ़ दल द्वारा इसे अनावश्यक तूल नहीं देना चाहिए।

कुछ सिरफिरे इस तरह के बयान देते रहते हैं—कुछ बातों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है, कुछ केवल पासिंग रिफरेंस होते हैं, जबकि कुछ बयान जानबूझकर समाज को जातीय आधार पर बाँटने के लिए दिए जाते हैं। कई बार राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो चुके नेता दोबारा चर्चा में आने के लिए ऐसे बयानबाज़ी करते हैं। समझदारी इसी में है कि ऐसे बयानों को तवज्जो न दी जाए, क्योंकि इससे कानून-व्यवस्था बिगड़ सकती है और दोष सरकार पर आता है।

यदि राजपूत आंदोलन को रोका या दबाया जाता है तो समुदाय की नाराज़गी बढ़ती है। पिछले चुनावों में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और गुजरात में यह नाराज़गी देखने को मिली थी। यदि स्थिति और बिगड़ती है तो इसे जातीय संघर्ष का रूप दिया जा सकता है, जैसे—“दलित की आवाज़ दबा दी गई”, और फिर पुराने ठाकुर-जाटव संघर्ष को ताज़ा करने की कोशिश हो सकती है।

शक्ति का प्रदर्शन अवश्य होना चाहिए, लेकिन एक सीमा तक। भाजपा को राजनीतिक दृष्टि से समझदारी दिखानी चाहिए। राज्यसभा में संबंधित नेता ने माफ़ी मांग ली है और उन्हें कार्यवाही से बाहर कर दिया गया है। ऐसे में अब इस मामले को और अधिक तूल न देते हुए इसे यहीं विराम देना उपयुक्त होगा।